व्यंग्य
दांतों का निकलवाना
वीरेन्द्र जैन
जूनियर कक्षा का एक बालक उदास और रुंआसा खड़ा था।
वह मेरा सहपाठी था मैंने जब शाम के चार बजे उससे शकल पर बारह बजने का कारण जानना
चाहा तो उसने दुख और गुस्से के मिले जुले स्वर में कहा कि आज नये मास्टरजी ने मेरे
कान खींचे।
मैंने उसके चारों ओर घूम कर देखा कि उसके दोनों
कान सही सलामत थे, और मेरे ज्ञान अनुसार यदि घर की दीवारों के कानों को छोड़ दें तो
आदमी के दो ही कान होते थे। यही बात उसे बताते हुए मैंने उससे कहा कि तुम्हें गलत
फहमी हुयी है मुझे तो तुम्हारे दोनों कान सही सलामत दिख रहे हैं खींच लिये गये
होते तो कैसे दिखते?
मेरी उक्त टिप्पणी पर मेरे सहपाठी अपना इकलौता माथा
कई बार ठोक लिया। वह बोला कि कान खींचने का मतलब वह नहीं होता है जो जैन मुनियों
के केश लौंच का होता है। कानों को तो मुख मंडल पर लगे लगे ही खींच लिया जाता है। उस
समय इस थ्योरी का मुझे कोई प्रैक्टिकल अनुभव नहीं था इसलिए मैंने जोर से अपने कान
खींच कर देखे और पाया कि उनमें ऐसी लोच होती है जो खिंचने के बाद कान को वापिस
अपनी जगह ले जाती है। केवल कानों के खिंचने की एक स्मृति शेष रह जाती है। आँखें भी
चेहरे के अंगों में ऐसा ही अंग होता है जो गुस्से में बड़ी बड़ी कर ली जाती हैं और
जिसे आंखें निकालना कहते हैं, किंतु वे भी निकल नहीं जातीं अपितु गुस्सा ठंडा होने
के बाद यथा स्थिति में आ जाती हैं, अधिक से अधिक उनमें से आंसू निकल आते हैं।
जुकाम आदि होने पर नाक में से नाक तो निकल आती है किंतु उसका उद्गम स्थल वहीं का
वहीं रहा आता है।
मुख मंडल में केवल मुँह, जिसमें से मनु महाराज के
अनुसार ब्राम्हण पैदा हुये थे, ही ऐसा अंग है जिसमें 32 दांत होते हैं और जरूरत व मौका
देख कर उन्हें निकाला जा सकता है। यह काम दंत चिकित्सक के कर कमलों से ही सम्पन्न
होता है। कोई भी आदमी जब खुद दांत निकालता है तो उसे हँसना कहते हैं। यह क्रिया
खुद खुश होने की स्थिति में ही की जाती है किंतु आस पास के मनहूस लोग इसे खीसें
निपोरना कहते हैं। वैसे तो दांत उसके विशेषज्ञ डाक्टर को ही दिखाये जाते हैं किंतु
विशेष परिस्तिथियों में साहुकार, अधिकारी या राजनेता के सामने भी दिखाये जाते हैं।
ऐसे अवसरों पर गले से घें घें कर के एक विशेष ध्वनि निकलती है जो कई बार बाहर
वालों को सुनायी नहीं देती। बहरहाल सम्प्रति तो मैं डाक्टरो से दांत निकलवाने के
बारे में व्यथा बताना चाहता हूं।
जब पहली बार दांत के दर्द ने बाकी के सारे सर्दों
को भुला दिया तो डाक्टर के पास गया था। इससे पहले अनुभवी लोगों ने डरा दिया था कि
दांत की नसों का सम्बन्ध सीधे दिल से होता है। किसी अनाड़ी से निकलवाना तो बहुत
खतरनाक हो सकता है। यह जानकर डाक्टर के पास जाने से ही पहले दिल जोर से धड़कने लगा
था, इसलिए नगर के सबसे प्रसिद्ध डाक्टर के यहाँ गया जिनके बारे में कहा गया था कि
वे मेडिकल कालेज में दंत रोग विभाग के हैड रहे हैं और आजकल भी राज्यपाल,
मुख्यमंत्री आदि के चकित्सकों की सूची में नामित हैं। उनके यहाँ प्रशिक्षु
डाक्टरों की लम्बी लाइन थी और इन्हें मौका देने के लिए डाक्टर साहब ने देखने की
अपनी मोटी फीस निर्धारित कर रखी थी। जो यह फीस देने को तैयार होता उससे मरीज की
हैसियत और मजबूरी स्वयं तय हो जाती थी। जूनियर डाक्टर बिना फीस के देखते थे इसलिए
मुफ्त के माल जैसा ही उनका महत्व था। मैंने भी जान है तो जहान है की तर्ज पर गरीबी
में भी फीस देकर दिखाना ही तय किया था। दर्दीले दांत को देख कर डाक्टर ने पूछा कि
रूट कैनाल कराना चाहेंगे या निकलवाना चाहेंगे? मन में तो आया कि कह दूं कि डाक्टर
मैं हूं कि आप। किंतु गिरधर कवि राय आड़े आ गये जो कक्षा सात में ही जिन लोगों से
बैर न लेने की समझाइश दे गये थे जिनमें विप्र पड़ोसी वैद्य शामिल थे इसलिए विनम्रता
से कहा कि जैसा आप उचित समझें। उन्होंने उसे निकालना ही उचित समझा और तुरंत ही दो
दिन तक एंटीबायोटिक और पेन किलर खाकर आने की सलाह दी। किसी आज्ञाकारी की तरह उनकी
बात मान कर मैं सही तिथि और समय पर पहुंचा तो पाया कि वहाँ मुझ से भी पहले पहुंचे
हुए कई लोग एंटीबायोटिक व पेन किलर खाये बैठे थे।
एक असिस्टेंट डाक्टर परचा देखता और दांत की नस के
नीचे एनेस्थिया का इंजैक्शन देकर लाइन में बैठा देता था। समुचित समय बाद एक डाक्टर
आता था और गाल पर चिकौटी काट कर देखता था कि सही हिस्सा संवेदनहीन हो गया है या
संवेदन शेष है। गनीमत थी कि इस काम के लिए कोई महिला डाक्टर नियुक्त नहीं थी बरना
टैस्ट फेल हो जाता। संतुष्ट होने पर वह अगली पंक्ति में बैठा देता था जिसके बाद
लगभग अधलेटी कुर्सी पर जाना होता था। वहाँ डाक्टर साहब मुँह पर नकाब लगाये पूरी
तौर पर टिक जाने को कहते थे। उनके सिर पर तीसरा नेत्र रौशन था जिसकी रोशनी मरीज के
मुँह की गुफा को रोशन कर देती है। उसी समय मरीज ने अगर गलत दांत उखाड़े जाने के
किस्से सुने होते हैं तो उसे डर लगता है कि उसके साथ भी ऐसा न हो जाये। अनुभवी
डाक्टर अपने पलास से उचित पकड़ बना कर दांत को मूली की तरह उखाड़ लेते हैं। अगर दांत
कमजोर हुआ तो वह पलास की मजबूत पकड़ से ही टूट जाता है। फिर तो डाक्टर उसकी जड़ों को
खेत में आलू खोदने की तरह नीडिल से खोद खोद कर निकालते हैं। एनेस्थिया के प्रभाव
के बाद भी मरीज दहशत से भरा होता है और पूरे चेहरे को कस कर जकड़ लेता है। डाक्टर
द्वारा बार बार रुई के मोटे फाहे को मुँह के अन्दर डालते रहने से ही पता चलता है
अन्दर रक्तपात हो रहा है।
अपना काम पूरा करने के बाद डाक्टर फिर एक मोटा
फाहा और पट्टी का टुकड़ा दांत के नीचे रख कर दबाने और दबाये रखने का आदेश देते हैं।
सलाह यह भी दी जाती है कि थूकना नहीं है अपितु अपना खून सहित जो भी द्रव श्राव हो
उसे गुटकते रहना है। पहले लोग कहते थे कि रिश्तेदार हमारा खून पी रहे हैं किंतु अब
मरीज खुद ही अपना खून पीते रहने को मजबूर रहता है। खून के घूंट पीने के मुहावरे का
जन्म शायद ऐसी ही स्थिति में हुआ होगा। एनेस्थिया के प्रभाव के कारण वाहन चलाने की
मनाही होती है इसलिए सार्वजनिक वाहन का उपयोग करना होता है व आदत के विपरीत बिना
मोल भाव किये आटो में बैठना होता है, उसे परची पर लिख कर बताना होता है कि कहाँ
जाना है और आटोवाला पहले तो शक्ल पढता है और फिर गूंगे से मनमाना किराया वसूलता
है।
बार बार मन फ्रिज में रखी आइसक्रीम की ओर जाता है,
जिसे ही खाने की अनुमति है और् जिसके लिए खून का बहना बन्द होने और रुई निकाले
जाने की प्रतीक्षा रहती है। आइसक्रीम के अलावा और कुछ नहीं खाना है यह बात डाक्टर
सम्मत है इसलिए कोई अपराध बोध भी नहीं होता। आइसक्रीम के साथ मुँह में लगा रह गया
खून भी उदरस्थ होता है।
आँख, कान, नथुने भले ही दो दो होते हैं किंतु
दांत तो बत्तीस होते हैं। जैसे खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है वैसे दांतों
के दर्द का हाल है। एक के बाद दूसरे का नम्बर लगा रहता है। अब तक बारह निकलवा चुका
हूं और अब तो डेंटिस्ट के पास ऐसे जाना होता है जैसे मकतल को जा रहे हों।
किस धज से कोई मकतल को गया वह शान सलामत रहती है।
ये दांत तो बहता दरिया हैं, ये दांत तो आने जाने हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023