शुक्रवार, सितंबर 06, 2024

व्यंग्य दांतों का निकलवाना

 

व्यंग्य

दांतों का निकलवाना

वीरेन्द्र जैन

जूनियर कक्षा का एक बालक उदास और रुंआसा खड़ा था। वह मेरा सहपाठी था मैंने जब शाम के चार बजे उससे शकल पर बारह बजने का कारण जानना चाहा तो उसने दुख और गुस्से के मिले जुले स्वर में कहा कि आज नये मास्टरजी ने मेरे कान खींचे।

मैंने उसके चारों ओर घूम कर देखा कि उसके दोनों कान सही सलामत थे, और मेरे ज्ञान अनुसार यदि घर की दीवारों के कानों को छोड़ दें तो आदमी के दो ही कान होते थे। यही बात उसे बताते हुए मैंने उससे कहा कि तुम्हें गलत फहमी हुयी है मुझे तो तुम्हारे दोनों कान सही सलामत दिख रहे हैं खींच लिये गये होते तो कैसे दिखते?

मेरी उक्त टिप्पणी पर मेरे सहपाठी अपना इकलौता माथा कई बार ठोक लिया। वह बोला कि कान खींचने का मतलब वह नहीं होता है जो जैन मुनियों के केश लौंच का होता है। कानों को तो मुख मंडल पर लगे लगे ही खींच लिया जाता है। उस समय इस थ्योरी का मुझे कोई प्रैक्टिकल अनुभव नहीं था इसलिए मैंने जोर से अपने कान खींच कर देखे और पाया कि उनमें ऐसी लोच होती है जो खिंचने के बाद कान को वापिस अपनी जगह ले जाती है। केवल कानों के खिंचने की एक स्मृति शेष रह जाती है। आँखें भी चेहरे के अंगों में ऐसा ही अंग होता है जो गुस्से में बड़ी बड़ी कर ली जाती हैं और जिसे आंखें निकालना कहते हैं, किंतु वे भी निकल नहीं जातीं अपितु गुस्सा ठंडा होने के बाद यथा स्थिति में आ जाती हैं, अधिक से अधिक उनमें से आंसू निकल आते हैं। जुकाम आदि होने पर नाक में से नाक तो निकल आती है किंतु उसका उद्गम स्थल वहीं का वहीं रहा आता है।

मुख मंडल में केवल मुँह, जिसमें से मनु महाराज के अनुसार ब्राम्हण पैदा हुये थे, ही ऐसा अंग है जिसमें 32 दांत होते हैं और जरूरत व मौका देख कर उन्हें निकाला जा सकता है। यह काम दंत चिकित्सक के कर कमलों से ही सम्पन्न होता है। कोई भी आदमी जब खुद दांत निकालता है तो उसे हँसना कहते हैं। यह क्रिया खुद खुश होने की स्थिति में ही की जाती है किंतु आस पास के मनहूस लोग इसे खीसें निपोरना कहते हैं। वैसे तो दांत उसके विशेषज्ञ डाक्टर को ही दिखाये जाते हैं किंतु विशेष परिस्तिथियों में साहुकार, अधिकारी या राजनेता के सामने भी दिखाये जाते हैं। ऐसे अवसरों पर गले से घें घें कर के एक विशेष ध्वनि निकलती है जो कई बार बाहर वालों को सुनायी नहीं देती। बहरहाल सम्प्रति तो मैं डाक्टरो से दांत निकलवाने के बारे में व्यथा बताना चाहता हूं।

जब पहली बार दांत के दर्द ने बाकी के सारे सर्दों को भुला दिया तो डाक्टर के पास गया था। इससे पहले अनुभवी लोगों ने डरा दिया था कि दांत की नसों का सम्बन्ध सीधे दिल से होता है। किसी अनाड़ी से निकलवाना तो बहुत खतरनाक हो सकता है। यह जानकर डाक्टर के पास जाने से ही पहले दिल जोर से धड़कने लगा था, इसलिए नगर के सबसे प्रसिद्ध डाक्टर के यहाँ गया जिनके बारे में कहा गया था कि वे मेडिकल कालेज में दंत रोग विभाग के हैड रहे हैं और आजकल भी राज्यपाल, मुख्यमंत्री आदि के चकित्सकों की सूची में नामित हैं। उनके यहाँ प्रशिक्षु डाक्टरों की लम्बी लाइन थी और इन्हें मौका देने के लिए डाक्टर साहब ने देखने की अपनी मोटी फीस निर्धारित कर रखी थी। जो यह फीस देने को तैयार होता उससे मरीज की हैसियत और मजबूरी स्वयं तय हो जाती थी। जूनियर डाक्टर बिना फीस के देखते थे इसलिए मुफ्त के माल जैसा ही उनका महत्व था। मैंने भी जान है तो जहान है की तर्ज पर गरीबी में भी फीस देकर दिखाना ही तय किया था। दर्दीले दांत को देख कर डाक्टर ने पूछा कि रूट कैनाल कराना चाहेंगे या निकलवाना चाहेंगे? मन में तो आया कि कह दूं कि डाक्टर मैं हूं कि आप। किंतु गिरधर कवि राय आड़े आ गये जो कक्षा सात में ही जिन लोगों से बैर न लेने की समझाइश दे गये थे जिनमें विप्र पड़ोसी वैद्य शामिल थे इसलिए विनम्रता से कहा कि जैसा आप उचित समझें। उन्होंने उसे निकालना ही उचित समझा और तुरंत ही दो दिन तक एंटीबायोटिक और पेन किलर खाकर आने की सलाह दी। किसी आज्ञाकारी की तरह उनकी बात मान कर मैं सही तिथि और समय पर पहुंचा तो पाया कि वहाँ मुझ से भी पहले पहुंचे हुए कई लोग एंटीबायोटिक व पेन किलर खाये बैठे थे।

एक असिस्टेंट डाक्टर परचा देखता और दांत की नस के नीचे एनेस्थिया का इंजैक्शन देकर लाइन में बैठा देता था। समुचित समय बाद एक डाक्टर आता था और गाल पर चिकौटी काट कर देखता था कि सही हिस्सा संवेदनहीन हो गया है या संवेदन शेष है। गनीमत थी कि इस काम के लिए कोई महिला डाक्टर नियुक्त नहीं थी बरना टैस्ट फेल हो जाता। संतुष्ट होने पर वह अगली पंक्ति में बैठा देता था जिसके बाद लगभग अधलेटी कुर्सी पर जाना होता था। वहाँ डाक्टर साहब मुँह पर नकाब लगाये पूरी तौर पर टिक जाने को कहते थे। उनके सिर पर तीसरा नेत्र रौशन था जिसकी रोशनी मरीज के मुँह की गुफा को रोशन कर देती है। उसी समय मरीज ने अगर गलत दांत उखाड़े जाने के किस्से सुने होते हैं तो उसे डर लगता है कि उसके साथ भी ऐसा न हो जाये। अनुभवी डाक्टर अपने पलास से उचित पकड़ बना कर दांत को मूली की तरह उखाड़ लेते हैं। अगर दांत कमजोर हुआ तो वह पलास की मजबूत पकड़ से ही टूट जाता है। फिर तो डाक्टर उसकी जड़ों को खेत में आलू खोदने की तरह नीडिल से खोद खोद कर निकालते हैं। एनेस्थिया के प्रभाव के बाद भी मरीज दहशत से भरा होता है और पूरे चेहरे को कस कर जकड़ लेता है। डाक्टर द्वारा बार बार रुई के मोटे फाहे को मुँह के अन्दर डालते रहने से ही पता चलता है अन्दर रक्तपात हो रहा है।

अपना काम पूरा करने के बाद डाक्टर फिर एक मोटा फाहा और पट्टी का टुकड़ा दांत के नीचे रख कर दबाने और दबाये रखने का आदेश देते हैं। सलाह यह भी दी जाती है कि थूकना नहीं है अपितु अपना खून सहित जो भी द्रव श्राव हो उसे गुटकते रहना है। पहले लोग कहते थे कि रिश्तेदार हमारा खून पी रहे हैं किंतु अब मरीज खुद ही अपना खून पीते रहने को मजबूर रहता है। खून के घूंट पीने के मुहावरे का जन्म शायद ऐसी ही स्थिति में हुआ होगा। एनेस्थिया के प्रभाव के कारण वाहन चलाने की मनाही होती है इसलिए सार्वजनिक वाहन का उपयोग करना होता है व आदत के विपरीत बिना मोल भाव किये आटो में बैठना होता है, उसे परची पर लिख कर बताना होता है कि कहाँ जाना है और आटोवाला पहले तो शक्ल पढता है और फिर गूंगे से मनमाना किराया वसूलता है।

बार बार मन फ्रिज में रखी आइसक्रीम की ओर जाता है, जिसे ही खाने की अनुमति है और् जिसके लिए खून का बहना बन्द होने और रुई निकाले जाने की प्रतीक्षा रहती है। आइसक्रीम के अलावा और कुछ नहीं खाना है यह बात डाक्टर सम्मत है इसलिए कोई अपराध बोध भी नहीं होता। आइसक्रीम के साथ मुँह में लगा रह गया खून भी उदरस्थ होता है।

आँख, कान, नथुने भले ही दो दो होते हैं किंतु दांत तो बत्तीस होते हैं। जैसे खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है वैसे दांतों के दर्द का हाल है। एक के बाद दूसरे का नम्बर लगा रहता है। अब तक बारह निकलवा चुका हूं और अब तो डेंटिस्ट के पास ऐसे जाना होता है जैसे मकतल को जा रहे हों।

किस धज से कोई मकतल को गया वह शान सलामत रहती है।

ये दांत तो बहता दरिया हैं, ये दांत तो आने जाने हैं।   

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

शुक्रवार, जुलाई 14, 2023

व्यंग्य अथ मूत्र कथा

 

व्यंग्य

अथ मूत्र कथा

वीरेन्द्र जैन

म.प्र. के एक शुक्ला विधायक के शुक्ला प्रतिनिधि ने एक आदिवासी के मूड़ पर क्या मूता कि पूरे देश में यत्र तत्र सर्वत्र मूत्र ही मूत्र फैल गया। किसी व्यक्ति के मूतते हुए इतने वीडियो इससे पहले कभी वायरल नहीं हुये होंगे, जितने भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले, सत्ता के अहंकार में मनुष्यता पर मूतते हुए इस विधायक प्रतिनिधि के हुये। जो चैनल खोलो उसमें नल चलता हुआ दिखाई दे रहा था। इस दौरान  इससे बड़ी दुर्घटना भी नहीं हुयी जो इसकी जगह ले सकती।

समाज में जब रामभरोसे की दूसरी कोई बड़ी पहचान नहीं बन सकी तो वे खुद को विचारक कहने लगे थे। इसमें कोई परीक्षा नहीं देना पड़ती है। विचार करना हर स्वस्थ या अस्वस्थ व्यक्ति का अधिकार या कर्तव्य या किंकर्तव्यविमूढता होता है। न

नाज है उनको बहुत सब्र मुहब्बत में किया

पूछिए सब्र न करते तो और क्या करते

 इस दौरान भी रामभरोसे ने जनप्रतिनिधि शुक्ला के प्रतिनिधि शुक्ला की मूत्रधारा की तरह विचार की धारा बहा दी। आपके तवज्जो की दरकार है।

मूत्र, प्राणियों द्वारा विसर्जित किया जाने वाला एक द्रव्य पदार्थ होता है जो सदियों से देह से इसी प्रवाह प्रक्रिया में है। मनुष्य को यह सुविधा है कि स्थान और लक्ष्य तय कर के इस कार्य को पूर्ण कर सकता है। मनुष्य द्वारा पाले गये कुत्ते को छोड़ कर बाकी सारे प्राणी शरीर में द्रव्य का भंडार होते ही उसे प्रवाहित करने लगते हैं। आवारा कुत्ते तो इससे अपनी टैरीटरी [सीमा] बना लेते हैं। “जहाँ जाते हैं वे, अपनी निशानी छोड़ आते हैं “। राम भरोसे ने तो कई बार कुछ आवारा कुत्तों का दिन भर यह जानने के लिए पीछा किया कि इनके इतनी पेशाब बनती कैसे है।

       उन्होंने पाया कि वे किसी पड़ी हुयी वस्तु या भूमि पर नही मूतते वे हमेशा खड़ी हुयी वस्तु, दीवार या कोने को लक्ष्य बनाते हैं, जैसे मील का पत्थर, पार्क किये गये स्कूटर का टायर या नम्बर प्लेट जहाँ नम्बर के अलावा प्रैस या ऐसा ही कुछ और लिखा होता है, कार का पहिया आदि। खाली पड़े मन्दिरों में वे देवताओं का महत्व और शक्ति भी नहीं समझते। दतिया के एक कवि चन्द्रशेखर मिश्र ने तो इस स्थिति को स्वीकार करते हुए लिखा भी था कि-

रोज पुजते हैं, रोज मुतते हैं, चन्द्रशेखर खराब होते क्या

युधिष्टर ने जब स्वर्ग में अपने साथ अपने कुत्ते को भी ले जाना चाहा तो इन्द्र ने शायद इसी डर से आनाकानी की हो कि महाराज इनकी दिनचर्या नियंत्रण वाली नहीं है, रम्भा, मेनका जैसी अप्सराएं क्या सोचेंगीं। पर युधिष्टर अपने सारे भाइयों और द्रोपदी की जगह कुत्ते को ले गये। उसकी बाद की कथा नहीं मिलती क्योंकि किसी ने स्टोरी के लिए स्वर्ग जाने का साहस नहीं जुटाया।  

हमारे बहुत सारे पुराण पुरुषों ने इस बारे में बहुत सारे अनुभव नहीं छोड़े हैं सिवाय अगस्त ऋषि के जिन्होंने पूरा समुद्र पी लिया था और देवताओं के हाहाकार पर उसे प्राकृतिक रास्ते से बाहर निकाला तो वह उसी स्वाद में अर्थात खारा होकर निकला। तब से वह ऐसा ही है। हमारे पास हर सवाल के लिए कोई तर्क भले ही ना हो किंतु कहानी जरूर है। हमारे पुराण पुरुषों के पास कितने भी हाथ हों, सिर हों, किंतु विसर्जन अंगों की बहुलता नहीं बतायी गयी है। यही कारण् है कि इस विषय पर बहुत सारी पुराण कथाएं नहीं  हैं। मुसलमानों ने जरूर इस के आसपास कुछ व्यवहारिक आचरण जोड़े हैं।

वैद्यो की दुनिया में जरूर एक प्रेरणाप्रद कथा प्रचलित है। एक राजा ने स्नेहवश एक वैद्य के बेटे को अपने हाथी के हौदे पर बैठा लिया और जब महल के दरवाजे पर पहुंच ही थे कि उसने हाथी को रुकवाया और उतर कर उसने वही काम किया जो छोटी उंगली उठाने का संकेत देने के बाद किया जाता है। बाद में राजवैद्य से राजा ने शिकायत की आपके पुत्र में जरा भी धैर्य नहीं है। हम लोग महल में पहुंचने ही वाले थे कि उससे पहले उसने पेशाब करने के लिए हाथी रुकवा दिया। वैद्य ने कहा कि महाराज वह सचमुच नालायक है, यह तो ऐसी क्रिया है कि उसे तो रोकना ही नहीं चाहिए, उसे तो हौदे पर बैठे बैठे ही कर देना चाहिए था। इस दिशा में मैं महामना मोरारजी भाई देसाई द्वारा अपनाये गयी चिकित्सा पद्धति की तो चर्चा ही नहीं कर रहा, किंतु कटी उंगली पर न मूतने के मुहावरे ने इसके जनसामन्य के उपचार में उपयोग के सन्देश तो दिये ही हैं।

हमारे देश में गौ और ब्राम्हण को इतना महत्व दिया गया है कि अवतारों के अवतरण का उद्देश्य ही गौ और ब्राम्हण की रक्षा करना बतलाया गया है। जब दोनों ही समान महत्व के हैं तो केवल गौ मूत्र का गुणगान और ब्राम्हण देवता के मूत्र के प्रति नफरती बातें करना तो बहुत नाइंसाफी है।

कहा जा रहा है कि जिस व्यक्ति का वीडियो वायरल हुआ है उसने बाद में मुख्यमंत्री से  पैर धुलवाने और पाँच लाख लेने के बाद कहा है कि वह व्यक्ति मैं नहीं था जिसकी मूड़ पर मूता गया है। मान लो कि इस फैसले को पलटना पड़ा तो उसकी प्रक्रिया क्या होगी? क्या दिये हुये पैसे वापिस ले लिये जायेंगे? क्या उसके धुले हुये पैर दोबारा गन्दे कर दिये जायेंगे? उसकी नई कमीज उतरवाकर पुरानी कमीज व पैंट फिर से पहिनने को कहा जायेगा?  रामभरोसे की विचार प्रक्रिया जारी है।

वीरेन्द्र जैन

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गुरुवार, अक्तूबर 15, 2015

व्यंग्य वो जिनका रखा हुआ है

व्यंग्य
वो जिनका रखा हुआ है
वीरेन्द्र जैन
पहले दो तरह के संस्कृतिकर्मी हुआ करते थे। एक् वे जिन्हें मिल गया था, और दूसरे वे जो उसके लिए हींड़ते रहते थे। हींड़ना नहीं समझते हैं।
अगर आप बुन्देलखण्ड में नईं रये हैं तो हींड़ना नहीं समझ सकते हैं। वैसे तो यह तरसने जैसा शब्द है किंतु उससे कुछ भिन्न भी है। तरसने वाला तो तरसने को प्रकट भी कर देता है जैसे बकौल कैफ भोपाली-
हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे
वो फलाने से, फलाने से, फलाने से मिले
किंतु हींड़ने वाला तरसता भी है और प्रकट भी नहीं करता। मन मन भावै, मुड़ी हिलावै वाली मुद्रा बुन्देलखण्ड में ही मिलती है। और यही मुद्रा क्या दूसरी अनेकानेक मुद्राएं भी बुन्देलखण्ड की मौलिक मुद्राएं हैं। ये अलग बात है कि बुन्देलखण्डियों ने उनका पेटेंट नहीं करवाया है। इन्हीं मुद्राओं के कारण ही इस क्षेत्र में हिन्दी व्यंग्य के भीष्म पितामह हरिशंकर परसाई जन्मते हैं, रागदरबारी जैसा उपन्यास इसी क्षेत्र के अनुभवों पर ही लिखा जाता है, और बरामासी जैसा उपन्यास किसी दूसरे क्षेत्र के जीवन पर सम्भव ही नहीं हो सकता।
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी, पर यह तो बात न होकर गैस हो गयी कि निकलने भर की देर थी और इतनी दूर तक चली आयी। पर यह गैस नहीं है, इसलिए ज़िन्न को वापिस बोतल में ठूंसते हैं।
तो जी हाँ मेरा मतलब पुरस्कारों से ही था जो कभी कुछ लोगों को मिल जाता था और बहुत सारे लोग उनको तरसते रहते थे। तरसने वाले अपनी झेंप दो तरह से मिटाते थे। एक तरफ तो वे कहते थे कि पुरस्कारों का कोई महत्व नहीं है, बेकार की चीज हैं, दूसरी तरफ वे कहते थे ये तो चापलूसी से मिलते हैं, सरकार के चमचों को मिलते हैं, साहित्य के नाम पर नहीं विचारधारा के नाम पर मिलते हैं, जब सरकार बदलेगी तो वह हमारी प्रतिभा को पहचानेगी आदि। पर सरकारें आती जाती रहीं किंतु पुरस्कारों और उन लोगों का रिश्ता कम ही बन सका। ऐसे लोग तत्कालीन सरकार का विरोध करते थे उसे जम कर गालियां देते थे व अपने आप को संत होने का दिखावा जैसा करते थे, पर निगाहें हमेशा पुरस्कारों पर लगी रहती थीं । वे गुपचुप रूप से आवेदन करते रहते थे। सिफारिशें करवाते थे, क्योंकि सरकार प्रतिभा को पहचान ही नहीं रही थी अर्थात पुरस्कार नहीं दे रही थी। किंतु जब उन्हें भूले भटके मिल जाता था तो वे सारा विरोध भूल कर ले आते थे।
फिर परीक्षा की घड़ी आयी। जो सचमुच जनता के लेखक थे, जिनका लेखन उनके पुरस्कारों से नहीं पहचाना जाता था, उन्होंने सरकार की निर्ममता, उदासीनता और तानाशाही प्रवृत्ति के विरोध में पुरस्कार वापिस लौटा दिया तो वे बड़े संकट में आ गये। जैसे तैसे तो मिला था, उसे लौटायें कैसे? हरिशंकर परसाई ने इसी संकट को आत्मालोचना के रूप में उस समय लिखा था जब ज्यां पाल सात्र ने नोबल पुरस्कार लौटा दिया था। उन्होंने लिखा, यह ज्याँ पाल सात्र बहुत बदमाश आदमी है, इसे नोबल पुरस्कार मिला तो इसने उसे आलू का बोरा कह कर लौटा दिया। ये मेरे चार सौ रुपये मरवाये दे रहा था। मुझे सागर विश्वविद्यालय से चार सौ रुपये का पुरस्कार मिला था किंतु सात्र की देखा देखी मेरे अन्दर भी उसे लौटा देने का जोर मारा और मैं भी उसे लौटाने वाला था किंतु सही समय पर अक्ल आ गयी और मैं पुरस्कार ले आया। उस पैसे से मैंने एक पंखा खरीदा जो आजकल ठंडी हवा दे रहा है जिससे आत्मा में ठंडक पहुँच रही है। मैं ठीक समय पर बच गया।
उदय प्रकाश इस दौर के सात्र हैं। उनके दुष्प्रभाव से जिनकी आत्मा बच गयी उसे ठंडक पहुँच रही है। उन्होंने ड्राइंग रूम में सजे पुरस्कारों को उठा कर अलमारी में रख दिया है। वे रात में अचानक उठ जाते हैं, और अलमारी खोल खोल कर देख लेते हैं कि रखा हुआ है या नहीं। इस साली आत्मा का कोई भरोसा नहीं कब आवाज देने लगे, कब जाग जाये और बेकार के जोश में कह दें कि- ये ले अपनी लकुटि कमरिया बहुतई नाच नचायो। बच्चों से कह रखा है कि कोई ऐसा वैसा आदमी आ जाये तो कह देना, आत्मा को ठंडक पहुँचाने हिल स्टेशन पर गये हैं और मोबाइल भी यहीं छोड़ गये हैं। कोई मिल भी जाता है तो कह देते हैं कि आजकल पितृपक्ष के कढुवे दिन चल रहे हैं, इन दिनों में कोई लेन देन का काम नहीं होता। फिर नवरात्रि का पावन पर्व आ गया, मुहर्रम आ गया बगैरह बगैरह। स्वास्थ नरम गरम चल रहा है। हत्याएं तो होती रहती हैं, पहले भी हुयी थीं, बगैरह बगैरह। इन दिनों दिमाग में कविताएं, कहानियां नहीं बहाने कौंधते रहते हैं। मुख्यधारा पुरस्कार लौटाने की चल रही है और इतनी मुश्किल से मिला हुआ कैसे वापिस कर दें? चाहे पूरी मानवता लुट पिट जाये, पुरस्कार नहीं छूटता।
एक कंजूस व्यापारी के पास डाकू आये और गरदन पर बन्दूक रख कर पूछा- बोलो जान देते हो या पैसा? व्यापारी बोला जान ले लो, पैसा तो मैंने बहुत मुश्किल से कमाया है।
वे मानवता की कीमत पर पुरस्कार को सीने से लगाये बैठे हैं। छूटता ही नहीं। 
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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शुक्रवार, जून 05, 2015

व्यंग्य पालीथिन युग पुराण



व्यंग्य
पालीथिन युग पुराण
वीरेन्द्र जैन
     
           सतयुग वालों को आगामी त्रेता,द्वापर, कलयुग के बारे में पता था। पर पत्थरयुग वालों  से परमाणुयुग के बारे में पूछने का साहस किसी ने नहीं किया अन्यथा पत्थर और सिर का मेल मिलाप हो जाता।
              अब युग पदयात्रियों की तरह खरामा खरामा नहीं चलते अपितु राकेट की गति से चलते हैं। मैं आज कह सकता हूं कि दो हजार बीस से युग पालीथिन युग के नाम से जाना जायेगा। यूरोप से एशिया और अफ्रीका से आस्ट्रेलिया तक चारों ओर पालीथिनें ही पालीथिनें होंगी। भारत के लोग अपने राष्ट्रवादी शासन से कहैंगे कि हिमालय से कन्या कुमारी और अटक से कटक तक जहां तिरंगी पालीथिनें बिखरी पड़ी हैं, वह स्य रंगबिरंगी आसेतु हिमालय हमारी पुण्यभूमि है। भाजपा वाले भगवा पालीथिनों पर जोर दैंगे तो मुस्लिम लीगी हरी पालीथिनें फैलायेंगे। कम्युनिष्ट लाल ही लाल पालीथिनें लहरायेंगे तो कांग्रेसी तिरंगी पालीथिनें। सड़कों पर गलियों में, खेतों में तालों में, नदियों-समुद्रों,में पेड़ों की डालों पर , बिजली के तारों पर, सर्वत्र पालीथिनें फैली होंगी। कोई नाली ऐसी नहीं होगी जहां पालीथिनें न फंसी पड़ी हों। सड़कों पर धूल उड़ना बन्द हो जायेगी और गाड़ियों के आने जाने पर पालीथिनें उड़ा करेंगी।  आंधी आयेगी तो पालीथिनों के बगूले बनेंगे। पानी बरसेगा तो सड़प सड़प की विचित्र सी आवाज से लोग समझ जायंगे कि बारिहो रही है। सभी खिड़कियों में जालियां लगी होंगीं ताकि पालीथिनें अन्दर न आ जायें।
             आस्तिक प्रभु की महिमा बताते हुए कहेंगे कि उसकी लीला देखो उसने कैसी कैसी पालीथिनें बनायी हें। उपदेझाड़ने का धन्धा करने वाले सन्त महात्मा आत्मा के बारे में प्रवचन फटकारते हुए बतायेंगे कि आत्मा पालीथिन की तरह नश्वर होती है। न वो सड़ती है न गलती है। गाय और गधे के पेट से जिस तरह पालीथिन यथावत बाहर निकल आती है, उसी तरह रीरों में आत्मा का प्रवेऔर निष्कासन होता है। यह पालीथिन की तरह अजर अमर अविनाी है, घट घट वासी है। दुनिया में ऐसा कौन सा स्थान है जहां पालीथिन नहीं है। पुराने जमाने के उपदेशक जिन कणों-कणों में परमात्मा का वास होना बतलाते हैं वे सारे कण आज पालीथिनों में रखे हैं या यहां से वहां ले जाये जा रहे हैं। मनुष्य के हाथों में अगर कोई चीज लटकी है तो वो पालीथिन है। दुकानदार कोई चीज तौलने के बाद किसी चीज में भर रहा है तो वह पालीथिन है। सारा व्यापार, वाणिज्य, द्यो, पालीथिन पर टिका है। पर्यटन व पुरातत्व के सारे स्थल पालीथिनों से भरे हैं। कवि उपमा दे रहे हैं कि तेरे होठों का रंग गुलाबी पालीथिन की तरह है। जिस कहानी में पालीथिन का जिक्र न आये वह पौराणिक कथा  या ऐतिहासिक कहानी मानी जायेगी। ईसवी सन और ईसापूर्व के युग विभाजन की तरह पालीथिन आने से पहले और पालीथिन आने के बाद का विभाजन बनेगा।

फिल्मी गीतों के मुखड़े होंगे-पालीथिन के अन्दर क्या है? या मेरी सामने वाली खिड़की में एक लाल पालीथिन लटकी है । जहां लिखा होगा कि 'यहां पालीथिन लाना सख्त मना है' वहीं पर पालीथिन कचरे का ढेर लगा होगा। इस ढेर के पीछे लिखा होगा-गधा पालीथिन फैंक रहा है। बाहर गांव सड़क के किनारे ौच के लिये लोग मोटी पालीथिनों में पानी ले जाया करेंगे।

  कचरा बीनने वाले पालीथिनों को छोड़ कर सब कुछ बीनेंगे और पालीथिन  फ्री पार्कों के टिकिट बहुत मंहगे बिकंगे। पर्यावरण प्रेमी 'पालीथिन स्वास्थ  लिये हानिकरक है' जैसी वैधानिक चेताविनियां मुद्रित करवाने में सफल भी हो जायेंगे तो भी उसका परिणाम वैसा ही होगा जैसा कि सिगरेट के पैकिटों या राब की बोतलों पर लिखी चेताविनियां का होता आया है।

इस युग में जिस अवतार से जन्म लेने लिये कहा जायेगा तो वह जन्म लेने की जगह सिक लीव पर चला जायेगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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मो. 9425674629



शनिवार, दिसंबर 20, 2014

व्यंग्य कथा - लौट के हिन्दू घर को आये



व्यंग्य कथा

लौट के हिन्दू घर को आये



वीरेन्द्र जैन
       ये हिन्दुओं की घर वापिसी का युग है, पिछले आठसौ साल के बाद कोई हिन्दू राज आया है। वे लोग भी घर लौट रहे हैं जिन्हें पता ही नहीं है कि उनका घर कहाँ है और वे किस घर से कब और कहाँ गये थे। पर लौट रहे हैं। ऐसे ही एक घर लौटे हिन्दू ने एक विहिप वाले ठाकुरसाब की कोठी का दरवाजा खटखटा दिया।
कौन है बे? कोठी वाले हिन्दू वीर की आवाज़ गरजी।
मैं हूं शेख मुहम्मद उसने उत्तर दिया
क्या बात है?, तुम्हें क्या घर वापिसी करना है? उन्होंने पूछा
नहीं, वह तो मैं आपके साथ ही हवन करके कर चुका हूं
तो क्या पैसे नहीं मिले?
नहीं नहीं वैसी कोई बात नहीं
तो क्या बात है? उन्होंने खिड़की से मुँह निकाल कर पूछा
मैं पूछ रहा था कि अपना सामान कहाँ रख दूं वह बोला
कैसा सामान?
यही घरेलू सामान
घरेलू सामान! क्या मतलब है तेरा?
अब पुराना घर छोड़ आया हूं तो सामान साथ ले कर आ गया हूं, उसे कैसे छोड़ आता?
घर छोड़ने की क्या जरूरत थी?
बिना घर छोड़े घर वापिसी कैसे होती? अब उस पुराने घर में कैसे रह सकता हूं! उसने सिर का बोझ नीचे पटकते हुए कहा।
अरे नहीं नहीं यह घर वापिसी वैसी नहीं है, इसका यह मतलब नहीं कि तुम अपना झोपड़ा छोड़ कर आ जाओ। वैसे जहाँ तुम रहते थे, वहाँ क्या तकलीफ थी?
तकलीफ तो कोई नहीं थी पर अब जब आपकी इमदाद से ठाकुर बन कर घर वापिस आ गया हूं तो उन मुसलमानों के मुहल्ले में कैसे रह सकता हूं जहाँ थोड़ी सी दूर पर ही नीची जातियों के मकान भी हैं। क़्या यह एक ठाकुर की आन को ठेस पहुँचाने वाली बात नहीं होती!  
घर वापिसी करने का यह मतलब थोड़ी ही है कि तुम हमारे घर में घुस आओ!  
घर में वापिस आने के बाद और कहाँ जायें अब? उसने वहीं तीतर लड़ाने की मुद्रा में उकड़ूं बैठते हुए कहा। पैर पसार कर उसकी बीबी और बच्चे भी वहीं बैठ गये। उन्होंने डिब्बे से रोटी निकाली और खाने लगे।
हिन्दू वीर परेशान हो गये। वहाँ से गुजर रहे एक चैनल के स्ट्रिंगर दृश्य देख कर फिल्माने लगे। यह तो मुसीबत गले पड़ गयी। उन्होंने कोठी से बाहर बहुत सारी ज़मीन पर अतिक्रमण करके लान बना रखा था उस पर नये बने ठाकुर हिन्दू के बच्चे खेलने लगे थे। उन्होंने पुलिस को फोन किया कि कुछ लोग उनके घर में जबरदस्ती घुस आये  हैं। पुलिस दौड़ी दौड़ी आयी क्योंकि धर्मांतरण के मामले में उसकी काफी किरकिरी पहले ही हो चुकी थी। उसने मामले को समझा और शेख मुहम्मद से पूछा तुम यहाँ कैसे अपना डेरा डंडा लेकर आ गये?
हमारी घर वापिसी हुयी है हुजूर, और हम अपने घर वापिस लौट कर आ गये हैं। वह बोला
क्या पहले तुम्हारा यही घर था?
यही होगा, साब
होगा से क्या मतलब कोई प्रमाण है तुम्हारे पास?
नहीं हुजूर पर जब एक घर से दूसरे घर गये हैं तो कोई घर तो रहा ही होगा। शायद यही हो। मुझे तो याद नहीं पर ठाकुरसाब ने हमारे पिछले घर की याद रखी है तो इनके आसपास ही होगा। इसलिए हम यहाँ आ गये
क्या तुम्हारे पास कोई कागज हैं जो यहाँ आ गये, जबकि इनके पास हैं
ठाकुरसाब तुरंत अन्दर गये अपने कागज़ ले आये और दिखाने लगे। पुलिस के लोग शेख मुहम्मद से बोले देख लो
अब हम क्या देखें साब आप ही कागज से नाप कर इनकी जगह तय कर दें, हम उसके बाद अपना डेरा बना लेंगे।
ठाकुरसाब कहने लगे अब यह काम पुलिस के अफसर थोड़े ही करेंगे। उन्हें डर था कि अभी उनके अतिक्रमण की पोल खुल जायेगी। पर पुलिस वालों को उनकी बात अपमानजनक लगी, बोले अगर विवाद सुलझता है तो हम नाप जोख भी कर सकते हैं
शेख मुहम्मद बोला साब जब ठाकुर बन कर लौट आये हैं तो रहना तो ठाकुरवाड़ी में ही होगा। इनकी जमीन के पास से हम अपना डेरा शुरू कर देंगे। ठाकुरसाब ने अपना माथा पीट लिया।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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