बुधवार, मई 20, 2009

अथ पोलिंग कथा

व्यंग्य
अथ पोलिंग कथा
वीरेन्द्र जैन

पहले केवल ढोल की पोल हुआ करती थी जिसे कभी कभी लोग देख सुन समझ कर ज्ञानगर्व से मुस्कराते रहते थे और लोगों को बताते थे कि उन्हें ढोल की पोल का पता है, कि परसों ढोल की पोल खुल गयी थी। लोकतंत्र के जबरदस्ती घुस आने के बाद ढोल तो गोल हो गये पर पोल ही पोल रह गयी। कभी लोकसभा का पोल हो रहा है तो कभी विधानसभा का पोल हो रहा है कभी पंचायत पोल चलते हैं तो कभी नगरपालिका के पोल चलते हैं। बारह महीनों चौबिसों घंटे या तो पोल चलते हैं या पोल की तैयारी चलती है। कौन किसकी ओर देख कर खॉस और छींक रहा है इसका सम्बंध भी पोल के साथ खोल दिया जाता है।

इलेक्ट्रोनिक मीडिया के दिग्दिंगत में व्याप्त हो जाने के बाद तो पोल कई अवस्थाओं कें होने लगे हैं। एक प्री पोल होता है, फिर एक्जिट पोल होता है और इन दोनों के बीच में मुख्य पोल होता है। ये पोल तब तक चलते हैं जब तक कि परिणामों की पोल नहीं खुल जाती। लोग पोल में भाग तक लेते हैं। पहले ठप्पा लगाने में लगे रहते थे अब चीं बुलाने में लगे रहते हैं। इस खेल में इतना मजा आता है कि बच्चे तक सोचने लगे हैं कि हम कब अट्ठारह साल के हों और चीं बुलाने के लिए जायें। जब नेता पूरे पॉच साल तक हमें चीं बुलाते रहते हैं तो हम क्या एक दिन भी उनकी चीं नहीं बुला सकते। जिस पोल का उपयोग टामी लोग एक टांग उठाकर किया करते थे अब वे भी देखने लगे हैं कि यह कहीं वह वाला ' पोल ' तो नहीं है जिसे लोकतंत्र का महोत्सव आदि कह कर प्रणाम किया जाता हो।

पोल के लिए एक पोलिंग बूथ हुआ करता है जो मिल्क बूथ या टेलीफोन बूथ की ही तरह कम से कम जगह घेरने की कोशिश करता है। संकोची, कंजूस वृत्ति वाले इस स्थान से तो कई बार जन सुविधाओं वाले सुलभ स्थान ज्यादा बडे होते है। इन स्थानों से भी आम जन को तनाव मुक्ति की वैसी ही सुविधा प्राप्त होती है। चुनाव की घोषणा होते ही उसका पेट फूलना शुरू हो जाता है। प्रतिदिन उसके क्षेत्र में कोई न कोई किसी ना किसी की हवा बांधने के लिए आता है यह हवा खुले आकाश में तो बंध नहीं पाती इसलिए लोगों के पेटों का उपयोग किया जाता है। आंखों कानों के द्वारा जो हवा शरीर में प्रवेश करती है वह सीधे पेट में पहुचती है और वोटर मतदान तिथि की प्रतीक्षा में उतावला होने लगता है। प्रात: से ही वह व्यक्ति हड़बड़ाने लगता है ताकि पेट में बंधी हुयी हवा को खोल सके। दौड़ा दौड़ा पोलिंग बूथ की ओर भागता है पर वहॉ भी सिनेमाघरों और रेल के डिब्बों की तरह लाईन लगी होती है क्योकि सभी के पेट में हवा बंधी होती है जिसे निकालने के लिए सभी बेचैन रहते हैं। एक बार यह बंधी हवा निकल जाये तो अगले पोल तक की छुट्टी हो। एक बार चीं बोलते ही सबको पता लग जाता है कि इसकी बंधी हुयी हवा निकल गयी। चीं बुलाकर आदमी ऐसे गर्व से बाहर निकलता है जैसे अस्पताल से डिस्चार्ज होकर निकला हो तथा अस्पताल का बिल भी सरकार को चुकाना हो।

चीं बुलाकर बाहर आते ही वह मुहल्ले में हवा बांधने वाले कार्यकर्ता से हाथ मिलाना चाहता है पर उसकी कलंकित उंगली को देखकर कार्यकर्ता ऐसे हाथ पीछे खींच लेता है जैसे नित्यकर्म से निपट कर बिना हाथ धोये हाथ मिलाना चाहता हों। घर पर आकर वह हाथ का कलंक जितना मिटाना चाहता है वह उतना ही और गहरा होने लगता है। हार कर वह कलंक को स्वीकार कर लेता है। एक झूठी आशा बांधता है कि शायद चुनाव परिणामों से उसका कलंक धुल जाये। पर आशा, आशा ही रहती है। पेन्ट के दाग पानी से नहीं मिट्टी के तेल से छूटते हैं। पानी से छूटने की उम्मीद करना बेकार होता है और मिट्टी का तेल ब्लेक में भी नहीं मिल रहा। पोलिंग की पोल में सब समा जाता है।

वीरेन्द्र जैन
2/1शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629


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