सोमवार, फ़रवरी 25, 2013

व्यंग्य- सामूहिक चेतना संतुष्टि मीटर


व्यंग्य
सामूहिक चेतना संतुष्टि मीटर
वीरेन्द्र जैन
       शायद आपने नाम नहीं सुना होगा। सुनेंगे भी कहाँ तक रोज ही नये नये उपकरण बन रहे हैं , मालिश करने से लेकर नहलाने तक की मशीनें आ गयी हैं। बच्चे को मशीन में डाल दो तो नहला धुला कर ही वापिस निकालेंगी और कुछ दिनों बाद तो इंडिया के लिए विशेष ब्रांड आने वाला है जिसमें बच्चे को नहलाने धुलाने के बाद नज़र से बचाने के लिए डिठौना भी लगा कर निकालेंगीं।
       हमारी सम्मानीय अदालतें भी अब अपने फैसले नये नये उपकरणों से देने लगी हैं। ऐसा लगता है कि उन्होंने कोई सामूहिक चेतना संतुष्टि का मीटर प्राप्त कर लिया है जिससे गवाहों सबूतों और बहसों आदि की जरूरत ही खत्म हो गयी है। सामूहिक चेतना मीटर से नापा और सुना दिया फाँसी का फैसला, लटका दो तब तक के लिए जब तक कि जान न निकल जाये- हेंग टिल डैथ।
       भाजपा को ऐसे उपकरण का जल्दी ही पता लग गया था इसलिए उसने भी सामूहिक चेतना बनाने के ‘एनजियोज’ खोल लिये हैं, जो सामूहिक चेतना बनाने का काम करते रहते हैं कि सामूहिक चेतना को तो इसी से संतुष्टि मिलेगी। अब जिसको चाहें उसको फाँसी दिला सकते हैं। अब वे जिसको चाहे उसको धमका सकते हैं कि अगर हमारी बात नहीं मानी तो सामूहिक चेतना की संतुष्टि की दिशा ही बदल देंगे, और अदालत को फाँसी का फैसला देना ही देना पड़ेगा क्योंकि मीटर में आ रहा है। यह वैसा ही होगा जैसा कि दुकानदार एमआरपी दिखाता है और हम खुदा की किताब में लिखे वचन की तरह उस एमआरपी के आगे सिर झुका देते हैं। आगे से अदालतें भी कहेंगीं कि क्या करें गवाहों के बयान तो आपस में विरोधी हैं, सबूत भी नकली लगते हैं पर सामूहिक चेतना मीटर बोल रहा है सो सजा तो देना ही पड़ेगी। वैसे तुम्हारी जान जाने का हमें दुख है पर मशीन का कहा तो टाल नहीं सकते।
       संघी लोग बैठकर पुराने समय को याद कर रहे थे कि काश यह मीटर पहले आ जाता तो हम गोडसे की जान बचा लेते। सामूहिक चेतना को ऐसी भड़काते कि संतुष्टि का मीटर तक भड़भड़ाने लगता व न्यायालय गोडसे को बाइज्जत बरी कर देता और संघ पर प्रतिबन्ध लगने की नौबत ही नहीं आती। अब वे लोग माले गाँव, मडगाँव, समझौता एक्सप्रैस, अजमेरशरीफ, हैदराबाद, जामा मस्जिद आदि आदि के पकड़े गये साधु साध्वियों के भेष में रहने वालों के पक्ष में सामूहिक चेतना बना रहे हैं ताकि अदालतें कह सकें कि सबूत तो सारे हैं पर क्या करें ये सामूहिक चेतना की संतुष्टि का मीटर ही नहीं बोल रहा है।
       मशीनों का एकदम से दौर आ गया है, बैंकों ने एटीएम लगवा लिए हैं, पासबुक और चेक जमा करने वाली मशीनें आ गयी हैं। रेल टिकिट मशीनों से निकल रहे हैं, सारे के सारे दफ्तर मशीनों से चल रहे हैं तो बेचारा न्याय भी कब तक सिर खपाता। उसने भी ठुकवा ली मशीन। जय हो।      
वीरेन्द्र जैन
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