रविवार, जनवरी 31, 2010

व्यंग्य- अरे ये मुकेश अम्बानी तो अपना भाई-बन्द निकला

व्यंग्य
अरे ये मुकेश अम्बानी तो अपना भाई-बन्द निकला
वीरेन्द्र जैन
वैसे ऐसा हिन्दी फिल्मों में होता रहा था पर ये मामला वैसा नहीं है। ये वैसा है जैसे के लिये हमदर्दी या समवेदना शब्द ने जन्म लिया था। मैं तो वैसे ही उसको दुश्मन मान कर बैठा था, पर वो तो ठीक हुआ कि मैंने जनसत्ता में छपी वह खबर पढ ली जिससे पता लगा कि हम दोनों ही एक ही दर्द के मारे हैं। वैसे भाई कहने से मेरा आशय वैसा भी नहीं है जैसा कि उसका असली भाई है जो पहले के मुलायम सिंह की तरह अभी अमर सिंह की मित्रता के गौरव से भरा हुआ फिर रहा है, पर कुछ दिनों बाद उसके राज भी सीने में दफन होने के सार्वजनिक बयान आने लगेंगे।
आप कयास लगाने में क्यों अपना समय बरबाद कर रहे हैं जबकि मैं तो आपको वह खबर ही पढवाये देता हूं। घटना लन्दन की है और एन के सिंह की किताब- नाट बाए ए रीजन अलोन: द पालिटिक्स आफ चेजिंग इंडिया- के विमोचन समारोह की है। अरे ये वही समारोह है जिसमें कि मुकेश ने कहा था कि मुम्बई सभी भारतीयों की है, और इस बयान पर मुम्बई का एक बूढा गुंडा उनके पीछे लट्ठ लेकर घूम रहा है। खबर के अंतिम पैरा के अनुसार............................................
-......... बाद में बरखा दत्त ने दर्शकों में बैठी नीता अम्बानी की तरफ एक सवाल उछाला। नीता अम्बानी ने देश में बेहतरीन संस्थान विकसित करने के कारपोरेट जगत के उत्तरदायित्व का अहम मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि सुशिक्षित युवा वर्ग देश की बहुमूल्य सम्पदा और शान है और अगर हम उनकी ऊर्ज़ा और इरादों को सही दिशा दे सकें तो हम नये भारत का निर्माण कर सकते हैं। चर्चा का उपसंहार करते हुये बरखा दत्त ने कहा कि शिक्षा सबसे अहम है और फिर मुकेश अम्बानी से पूछा कि क्या आप कुछ कहना चाहेंगे! इस पर मुकेश अम्बानी ने कहा-
नहीं नहीं, नीता के कह चुकने के बाद में कुछ नहीं कहता।
बस यही वह बिन्दु था जिस पर मुझे लगा कि यह व्यक्ति तो अपना भाईबन्द है और इसका भी वही हाल है।
स्कूल में कल एक बच्चे से पूछा गया था कि बताओ मातृभाषा ही क्यों होती है पितृ भाषा क्यों नहीं होती।
बच्चा बोला क्योंकि हम भाषा को माँ से ही सीखते हैं, पिताजी को बोलने का मौका ही कहाँ मिलता है।
वीरेन्द्र जैन
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