रविवार, सितंबर 05, 2010

व्यंग्य- कानून , जिसे हमने हाथ में नहीं लिया


कानून जिसे हमने हाथ में नहीं लिया
वीरेन्द्र जैन

छोटे बच्चों की आदत होती है कि वे आपकी जेब मैं से चश्मा पैन या मोबाइल निकाल कर अपने मुँह में खाने लगते हैं। आप गोद में लिये हुये प्यारे प्यारे बच्चे का दिल भी नहीं तोड़ना चाहते पर उसे न खाने वाली चीज को मुँह में भी नहीं रखने देना पसंद करते हैं इसलिए उस चीज को छुपा देते हैं और कहते हैं कि कहाँ है वो तो छू हो गयी। अपने खाली हाथ दिखाते हुये आप उसकी अल्प विकसित समझ को भ्रमित करते हैं और वह हतप्रभ सा देखता रहता है कि इनके हाथ से वह चीज आखिर चली कहाँ गयी। कुछ लोग 'बड़े बूढे बच्चों' के साथ भी ऐसा ही खेल करते रहते हैं। उनकी दोनों जांघें सटी रहती हैं जिससे घुटने कुछ कुछ मुड़ जाते हैं पर वे दोनों हाथ खाली हिलाते हुये देश को बहलाते हुए नजर आने वाली मुख मुद्रा में कहते हैं कि हमने कानून को हाथ में नहीं लिया है! हम तो कानून हाथ में लेते ही नहीं हैं! देखो मेरे दोनों ही हाथ खाली हैं।
ज्यादातर लोग समझ नहीं पाते कि जब कानून इन्होंने हाथ में नहीं लिया तो आखिर कहाँ चला गया पर फिर भी कुछ लोग तो समझ ही जाते हैं कि इन्होंने कानून को कहाँ पर दबा रखा है। ये हाथ तो हिला कर दिखा रहे हैं पर टांगें नहीं हिला सकते, कुर्सी से उठ नहीं सकते।
हमारे देश में यह एक मंत्र वाक्य सा हो गया है कि कानून को हाथ में मत लो। नहीं लेते साब! लेते भी कैसे! जिन्दगी भर तो नून तेल सब्जी के थैले और गैस का सिलिन्डर हाथ में लिए घूमते रहे तो कानून को हाथ में कैसे लेते! हम तो कहते थे कि जिसको लेना हो सो ले हम तो सड़ने से बचाने के लिए राशन की दुकान से सस्ता गेंहू लेने जा रहे हैं, तुम्हें लेना हो तो तुम भी चलो।
पहले एकाध बार मन भी हुआ कि कानून को हाथ में लेकर देखें पर उसी समय पत्नी ने बच्चे को गोद में डालते हुये कहा कि अगर रोटी खाना हो तो पहले बैठ कर इसे खिलाओ। सो देश के भविष्य को हाथों में लिए बैठे रहे। कानून को हाथ में लेने का रोमांच कभी नहीं जिया।
समय बदला दुनिया बदली और यहाँ तक बदली कि कभी नेताजी के नाम से सुभाष चन्द्र बोस की तस्वीर उभरती थी पर अब गिजगिजी जुगुप्सा पैदा होती है। जो नेता पाठय पुस्तकों में अपनी जीवनी सहित छपते थे अब वे अखबारों के मुखपृष्ठ की शोभा बढाते हैं क्योंकि किसी को हत्या के लिए फाँसी की सजा हो रही होती है तो किसी को आजन्म कारावास की। कोई सवाल पूछने के पैसे लेने के लिए दण्डित हो रहा होता है तो कोई सासंद निधि स्वीकृत करने के लिए। कोई कबूतर बाजी कर रहा होता है तो कोई हवाला में बाइज्जत बरी होकर रथ पर सवार हो रहा होता है। यही कारण है कि अब नेता नहीं कहते कि कानून हाथ में मत लो। अब तो वे कहते हैं कि देखो तो बेचारा कानून कैसी जगह पड़ा हुआ है इसलिए हे वीर पुत्रो उठो और शिव के धनुष की तरह उसे हाथों में उठा कर उसकी प्रत्यंचा चढा दो।
राज्यों में जो दल सरकार में हैं वे ही प्रदेश बन्द का आवाहन करते हैं। हमारे एक मुख्यमंत्री ने एक बार कहा था कि वीरांगनाओं उठो और राशन की कालाबाजारी करने वालों का मुँह काला कर दो। महिलाएँ कहती हैं कि यह काम आप क्यों नहीं करते! तो उनका उत्तर होता है कि हमें जरा उनसे चुनावी चन्दा लेना पड़ता है इसलिए यह काम हम नहीं कर सकते। महिलाएं कहतीं हैं कि ठीक है पर जब तक तुम ये हमारी चूढियाँ सम्हाल कर रख लो और चाहो तो पहिन भी लो। वे चूढियाँ पहिन कर लालबत्ती वाली एसी गाड़ी में बैठ कर केन्द्र सरकार से और आर्थिक मदद माँगने चले जाते हैं। राज्य के मुख्यमंत्री और कर भी क्या कर सकते हैं!
दिल्ली की मुख्यमंत्री ने तो दलालों को पीटने का आवाहन कर दिया था पर जब लोगों ने पूछा कि आपकी पार्टी क्या कर रही है तो वे बोलीं गरमी इतनी पड़ रही है कि वे एक कैन्टीन चलाने वाले की गाड़ियाँ ले कर शिमला मसूरी गये हुये हैं। वैसे भी वे अहिंसक हैं और खुद भी चुनावों में पिटते रहते हैं इसलिए मारपीट उनका काम नहीं है। ये काम तो जनता को करना चाहिये, रही कानून की बात सो कानून अपना काम करेगा उससे डरना नहीं चाहिये।
केन्द्र के कृषिमंत्री ने अपने कानूनमंत्री से बिना सलाह लिए किसानों को सलाह दे डाली कि वे गाँव के प्राइवेट सूदखोरों का उधार न चुंकायें।
असल में बन्दे मातृम गाने और सूर्यप्रणाम के बाद जैसे ही हम भारत माता के श्री चरणों में अपना सिर झुकाते हैं वैसे ही हमारा ध्यान बंटने के दौर में सिर पर रखा कानून कहाँ गायब हो जाता है पता ही नहीं चलता। हम केवल उनके हाथ देखते रह जाते हैं कि वे तो खाली हैं और कानून उनके हाथों में दिख तो नहीं रहा है।
कोई नहीं कह रहा कि उसने कानून हाथों में लिया हुआ है, पर आखिर वो गया कहाँ? जनता द्वापर युग की गोपियों की तरह पूछती फिर रही है कि- कौन गली गया कानून ?
या पूछती है- कानून तू कहाँ है, दुनिया मिरी जवाँ है।
शम्मी कपूर का जमाना होता तो गाया जाता- कानून मिरा आज खो गया हैं कहीं, आप के पाँव के नीचे तो नहीं!
लैला मजनू की शैली में कहा जाता- कानून कानून पुकारूं में वन में, मोरा कानून बसा मोरे मन में।
कहाँ छुप गया है तू कठोर, देख तिरे चाहने वाले दर दर भटक रहे हैं
अखबारों में विज्ञापन छपवाया जाता प्रिय कानून तुम जहाँ कहीं भी हो फौरन घर चले आओ, तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी मम्मी की तबियत बहुत खराब हो गयी है। घर पर कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा। जो लोग भी कानून को देखें वे उसे हमारे घर तक पहुँचाने में मदद करें, उन्हें उचित इनाम दिया जायेगा।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

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