व्यंग्य
जन्म तिथि का चुनाव
वीरेन्द्र जैन
जिन्दा रहने के लिए पेट भरना
जरूरी होता है। पेट भरने के लिए नौकरी जरूरी होती है। नौकरी के लिए शिक्षा जरूरी
होती है, एक अदद डिग्री या प्रमाण-पत्र की आवश्यकता होती है
और उस प्रमाण - पत्र के लिए जन्म तिथि
अर्थात डेट ऑफ बर्थ की जरूरत होती है।
जिन्हें पेट भरने के लिए नौकरी नहीं करना होती है वे जन्म तिथि की परवाह नहीं करते
क्योंकि उन्हें रिटायर नहीं होना होता हे। उनकी सांस और दुकान एक साथ बन्द होती है
अर्थात सांस ही दुकान है और दुकान ही सांस है।
किसी बुजुर्ग
की दुकान बन्द देख कर लोग पूछते हैं कि - गये,
क्या ?
यदि उत्तर
नहीं में मिलता है तो दूसरा प्रश्न
होता है कि - तो फिर दुकान क्यों बन्द है ?
आदमी की जब तक
सांस है तब तक आस है कि ग्राहक आयेगा- मुनाफा चुकायेगा पुराना उधार देगा- नया ले
जायेगा। सांस गयी तो आस गयी, ग्राहक भी गया और उधार भी गया।
जिसके पास जन्म तिथि होती है
उसके सहकर्मी पूछने लगते हैं कि कितने साल और बचे हैं। बडे बाबू रिटायर हों, तो अपना नम्बर लगे। आखिरी साल में तो लोग दिन गिनने लगते
हैं पहली निगाह कलेन्डर पर पड़ती है। अंग्रेजों के समय में लोग होशियार हो गये थे, उम्र दो साल कम लिखाकर ज्यादा दिन नौकरी कर लेते थे। जन्म
पत्री वाला जन्म दिन और हाई स्कूल सार्टिफिकेट वाला जन्म दिन एक नहीं होते थे।
भविष्यफल देखने की राशि दूसरी तथा भविष्य बनाने, नौकरी देने वाली राशि दूसरी। एक भविष्य की तो दूसरी वर्तमान की।
जन्म के समय विक्रम
सम्वत और ईस्वी सन् दोनों के साथ साथ चलते
है। पर जन्म तिथि आते आते बदल जाते है। मेरे एक ठेकेदार मित्र अपने इंजीनियरों को
पार्टी देने के लिए अपने तीन जन्म दिन मनाते हैं
तथा वे तीनों ही उनके सच्चे जन्म दिन होते है। एक जन्म दिन विक्रम सम्वत के
आधार पर तिथि वाले दिन पड़ता है तो दूसरा ईसवी सन् वाली तारीख को पड़ता है, तीसरा जन्म दिन स्कूल प्रमाण-पत्र के आधार पर पडता है।
समझदार लोग अपना जन्म दिन स्वंय चुनते हैं। यदि उस दिन किसी अन्य महापुरूष का जन्म
दिन होता है तो सारी आभा फीकी पड़ जाती है सारी बधाइयां और पुष्पगुच्छ उसी के पास
पहुचते हैं। यदि लाल बहादुर शास्त्री को कैरियर मैनेजमेन्ट आता होता तो अपना जन्म
दिन दो अक्टूबर को नहीं रखते। सुबह से सारी श्रद्वांजलियां गांधीजी ले जाते है, बची खुची शास्त्री जी के हिस्से में आती है। पुराने लोग
जन्म तिथि के अनुसार भविष्य देखा करते थे नये लोग भविष्य की संभावनाओं पर जन्म
तिथि तय करते हैं। हिन्दू पार्टी के एक
नेता की जन्म तिथि देशी कलेन्डर से नही
मनायी जाती। वे ही नये ईसवी वर्ष पर नाक भौं सिकोड़कर, संवत्सर को बधाई देते मिलते हैं। देशी तिथि पर भनाएंगे तो
किसी को याद ही नहीं रहेगा। सुबह सुबह गुलदस्ते की जगह ज्ञापन लिये खड़े मिलेगे।
पंडितों पुराहितों ने
चढ़ावे के लालच में अवतारों के जन्म दिन तो
खोज लिये पर जन्म वर्ष खोजने की जरूरत
नहीं समझी। ठीक भी है, जन्म वर्ष से क्या मिलने वाला
था। जन्म दिन तो छोटे मोटे जूनियर देवताओं के भी खोजकर परसाद का इंताजाम कर लिया
गया है। जातिवाद ने जातियों के अपने अपने
महापुरूष भी उखड़वा दिये और धूम धकाड़ा करने
व अपनी ताकत दिखाने के लिए जन्म दिन का बहाना सबसे अच्छा है।
दीवारों पर लिखने
के लिए यह वाक्य बहुत अच्छा है कि व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से मकान बनता
है पर मनाने के लिए जन्म दिन ही ठीक है क्योकि कर्म दिन तो वर्ष में तीन सौ पैंसठ
होते हैं पर जन्म दिन तो एक ही होता है।
जन्म लेना एक कठिन कार्य है
अत: उसको प्रतिवर्ष आयोजित होना चाहिये उसकी याद की जाना चाहिये। जन्म के साथ जन्म
के स्थान का भी महत्व है। राम जन्म भूमि के नाम पर मातृभूमि के पचासों लोगों को
कुरबान करवा दिया गया है व पचासों हजार
करोड़ की सम्पत्ति भूमि में मिलाने के बाद लाखों श्रम दिवसों को नष्ट कराया जा चुका
है भले ही तुलसीदास जी कह गये हों कि - भए प्रकट कृपाला दीन दयाला कौश्लया हितकारी-
पर भूमि तो जन्म भूमि ही कहलायेगी। जो मूर्ति वहॉ रखी है वह भी अचानक वहां प्रकट
ही हुई मानी जाती है। यह जन्म भूमि का प्रेम है कि वह मूर्ति '' बैक टु दि बेसिक्स ''
वाले फार्मूले के
अनुसार जन्म भूमि पर पधारी थी। वैसे ''
सबै भूमि गोपाल की '' होती है, पर वह मंत्रालय अलग है कैदी
लोग भी आन्दोलित हैं कि अयोध्या की तरह जेलों पर भी कारसेवकों की कृपा हो जाये तो
सारे जेल तोड़कर विशाल कृष्ण मंदिर का निर्माण हो सकता है। कृष्ण जी रात्रि में जन्मे
थे पर उनकी ‘जन्म-रात्रि’ नही मनायी जाती,
उनका भी जन्म दिन ही
मनाया जाता है।
मैं किसी ठीक ठाक से जन्म दिन
की खोज में हूं - बस जरा बड़ा आदमी बन लूं।
तब तक आप तलाश कर रखना।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629
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