व्यंग्य
देश की चिड़िया
वीरेन्द्र जैन
अतीतजीवी
जब भी देश की समस्याओं पर बात करने उतरते हैं तब ‘भारत एक तुलनात्मक अध्ययन’ की तरह एक सूत्र वाक्य बार बार दुहराते हैं कि ‘भारत कभी
सोने की चिड़िया हुआ करता था’।
यह सुनते ही श्रोता वर्ग की निर्धन आँखें वर्तमान को धिक्कारती हुयी अतीत में
पहुँच जाती हैं और इस कीमती धातु की चमक उनकी आँखों में कौंधने लगती है। इस चकाचौंध
मे वे यह नहीं सोच पाते कि यदि दूध दही की नदियाँ बहाने वाली इस चिड़िया को अब
मिट्टी की चिड़िया कहें या कुछ और पर इसे ऐसा बनाने में योगदान भी तो अतीत वालों ने
ही दिया है। वर्तमान तो उसका परिणाम है। मुझे यदि इस सूत्र वाक्य की अनिवार्यता के
साथ भाषण करना पड़े तो मैं यही कहूंगा कि भारत अतीत में सोने की चिड़िया हुआ करता था
और उसी जमाने के लोगों ने उसका सत्यानाश करके हमें स्यापा करने के लिए छोड़ दिया।
पर मैं जानता हूं कि भाषण के लिए पहले से ही असंंख्य लोग भरे पड़े हैं जिनका काम
सुबह से शाम तक भाषण देना और केवल भाषण देना है। हो सकता है कि वे रात में उठकर भी
भाइयो और बहिनो कहना शुरू कर देते हों और इस पर उनकी पत्नी कहती हो कि तुम्हारी
बहिनजी तो लखनउ में जीजा जी के पास है, यहाँ मैं लेटी हूं... चुपचाप सो जाओ।
पर
मेरी चिंता दूसरी है, शायद इसी चिंता के कारण सोना मेरी जिन्दगी में उपलब्ध नहीं
है। किसी शायर ने कहा है कि ‘है
किसी माने में मुफलिस के लिए सोना नहीं’ । मेरी चिंता चिड़िया पर केन्द्रित है। भारत सोने का देश भी हो सकता था
जैसे कि सोने की लंका के बारे में पुराण भरे पड़े हैं। पर नहीं यह सोने का देश नहीं
यह सोने की चिड़िया था। इतिहास इस बारे में मौन है कि यह चिड़िया कैसे मिट्टी की
चिड़िया में बदल गयी और क्यों बदल गयी। क्या इसलिए कि चिड़िया उड़ती है और अगर उड़ती
है तो उसे तो अंततः उड़ना ही था, फिर असंतोष कैसा। जैसे साइबेरिया के पंछी सर्दियों
में उड़कर भारत आ जाते हैं तथा भारत के बहेलिये उनमें से कई को मारकर खा जाते हैं,
हो सकता है कि सोने की चिड़िया भी उसी हादसे का शिकार हो गयी हो। यदि वह चिड़िया थी,
तो उसके पंख भी होंगे और हो सकता है कि उन्हीं पंखों के लिए उसका शिकार हो गया हो,
जैसे मोर पंखों के लिए राष्ट्रीय पक्षी का शिकार होता है।
मुझे
लगता है कि चिड़िया को पिंजरे में पालने की प्रथा भी सोने की चिड़िया के उड़ जाने पर ही
शुरू हुई होगी। बुजर्गों ने लड़कों को डाँटते हुए कहा होगा कि देखो मैं कहता था न
कि चिड़िया को पिंजरे में बन्द करके रखो, नहीं तो उड़ जायेगी पर तुम नौजवान लोग
मानते कहाँ हो।
ऐसा कहते हुए वे घर की जवान लड़कियों की ओर भी देख लेते होंगे।
चिड़िया
अपने प्रतिबिम्ब से लड़ने के लिए भी विख्यात है, उसका यह गुण तो हमारे देशवासियों
से बहुत मिलता है। हम लोग भी अपने बनाये ऐसे शत्रु से लड़ते रहते हैं जिसका कोई
अस्तित्व ही नहीं होता पर हमें दिखायी देता है। हम भी चिड़ियों की तरह दिमाग से कम
काम लेते हैं। चिड़िया घोंसला बनाती है और हम लोग इसके लिए हाउसिंग बोर्ड का गठन कर
लेते हैं जो घोंसले जैसे ही मकान बनवा कर उसके आकर्षक विज्ञापन छपवाते रहते हैं।
लगता
है कि हमारा देश एक चिड़िया था, चिड़िया है और चिड़िया रहेगा । जब तक जागरण नहीं होता
यह ‘सोने’ की चिड़िया ही रहेगा।
वीरेन्द्र जैन
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