शुक्रवार, जुलाई 13, 2012

व्यंग्य- बलात्कार प्रधान देश


व्यंग्य
                बलात्कार प्रधान देश
                                                                                    वीरेन्द्र जैन
       आखिर ये मुँह ही तो थक चुका था यह कहते कहते कि भारत एक कृषि प्रधान देश है ,भारत एक कृषि प्रधान देश है। इस वाक्य को मंत्र की तरह बार बार, बार बार दुहराना होता था। लेखों में तो, भाषणों में तो, सभी जगह कृषि प्रधान देश था भारत। किसान सूखे से तबाह हो जाता था, बाढ में चौपट हो जाता था, फसल पर पाला पड़ जाता था, खलिहान में आग लग जाती थी, बेमौसम की बरसात किये कराये पर पानी फेर देती थी, पर देश कृषि प्रधान ही बना रहता। हम इसे अपनी मौलिक सोच की तरह कहते थे तो पता चलता था कि ये तो नकल है और जब दूसरे भी यही दुहराते तो ऐसा लगता था जैसे कि मेरी नकल कर रहे हों । झल्लाहट होती थी यह सुन सुन कर कि कौन किसकी नकल कर रहा है- मातृवत परदारेषु जैसा मामला था कि हमारी बीबी तुम्हारी माता, तुम्हारी बीबी हमारी माता पता नहीं कि हम तुम्हारे बाप या तुम हमारे।      
       आजादी आने के बाद भी लम्बे समय तक देश कृषि प्रधान ही बना रहा, यहाँ तक कि शर्म आने लगी कि यह  अभी तक कृषि प्रधान ही बना हुआ है। दूसरे देश कहाँ से कहाँ तक की प्रधानी पर पहुँच गये और एक हम हैं कि अभी तक वहीं के वहीं डले हुए हैं। बगल वाला पाकिस्तान तक आतंक प्रधान देश बन गया पर हम कुछ नहीं कर सके।
हम से क्या हो सका मुहब्बत में,                                                                 तुमने तो खैर बेबफाई की
       अब लगता है कि माहौल कुछ कुछ बदल रहा है, देश कई दिशाओं में प्रधानता की ओर बढ रहा है। भ्रष्टाचार में शायद ही किसी एकाध देश से पीछे होगा पर यह तो कह ही सकते हैं कि भारत एक बलात्कार प्रधान देश है। हालात यह हो गये हैं कि अगर देश में बलात्कार बन्द हो जायें तो बेचारे अखबारों का क्या होगा वे कब तक और कहाँ तक लौकी के पकौड़े और बरसात में स्वस्थ कैसे रहें छापते रहेंगे। पूरे अखबार में कम से कम एकाध दो बलात्कार तो चाहिए ही चाहिए। इस कमी को पूरा करने के लिए हमने एक पूरी कौम पैदा कर ली है। हमारे देश में तीसरे खंभे के नाम से जाने जाने वाले लम्पट दलों के छुटभैए नेताओं और नवधनाड्यों के नौजवानों की कृपा से देश का चौथा खम्भा बचा हुआ है और समाचार पत्र पत्रिकाओं से लेकर सत्य कथाएं तक दूधों नहा कर पूतों फल रही हैं।
       बलात्कारों ने पूरे देश को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बाँधने में अपूर्व योगदान दिया है। आदमी चाहे असमी बोलता हो या तामिल, गुजराती बोलने वाला हो या पंजाबी बोलने वाला कोलकते का हो या काझीकोड का अपनी भाषा के अपने अखबार के लोकल पेज पर बलात्कार की खबर जरूर पढता है। हिमालय से कन्या कुमारी तक और अटक से कटक तक पूरा भारत एक है। हमारे द्वारा प्यार से ‘सुरक्षित’ रखे गये कश्मीर से लेकर पीओके अर्थात पाकिस्तान ओक्यूपाइड कश्मीर तक इन खबरों में समानता बनी हुयी है। न जाति का भेद है न धर्म का, सवर्णों से लेकर दलित तक, और शैव, शाक्त, वैष्णव, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, बिना किसी भेद भाव के समाज में धर्मनिरपेक्षता का वातावरण बनाने के लिए बलात्कार कर रहे हैं।
       इस देश और समाज की एकता के लिए चिंतित लोगों ने देश के चप्पे चप्पे को बलात्कारमयी बनाने की कोशिश की है और वे इसमें असफल भी नहीं कहे जा सकते हैं। कृषि प्रधान देश के खेत और घर तो इसके लिए परम्परा से ही सबसे प्रिय जगह रही है पर अब तो स्कूलों में, कालेजों में, पार्कों में, आश्रमों में, पूजा स्थलों में, प्रार्थना स्थलों में, अस्पतालों में, कार्यालयों में, गलियारों में, यहाँ तक कि शौचालयों तक में इन खबरों के कार्यक्रम स्थल बन रहे हैं। गतिमान दशा में पहले यह काम यदा कदा ट्रेनों के कूपों में हुआ सुना जाता था पर वाहनों के विकास ने इसे गति के साथ जोड़ दिया जाता है। एकाध सप्ताह ही बीतता है कि राम भरोसे कहने लगता है कि बहुत दिन हो गये चलती कार में बलात्कार के समाचार नहीं आ रहे हैं कहीं पैट्रोल की मँहगाई का असर तो नहीं है। दो दिन बाद ही पैट्रोल के दाम एक रुपया सत्तर पैसे सस्ते होने और चलती सफारी में मंत्रीजी के भतीजे और गैंग द्वारा रास्ते से उठायी गयी लड़की से बलात्कार की खबर एक साथ आ जाती है, भले ही पैट्रोल के एक रुपए सत्तर पैसे सस्ता होने से उसका कोई सम्बन्ध नहीं हो। सहकारी आन्दोलन अगर कहीं सफल होता नजर आ रहा है तो वह यही क्षेत्र है। ‘गैंग रेप’ शब्द को हिन्दी के शब्दकोष में सम्मलित किये जाने पर विचार चल रहा है। लगता है कि ट्रैनों, बसों, कारों, जीपों, के निरंतर आरामदायक बनाये जाने के विज्ञापन इस को प्रोत्साहित करने के लिए ही दिये जाते हैं। हमारे मध्य प्रदेश में [मेरा मतलब राज्य से ही है] तो गत दिनों एक सरकारी एम्बुलेंस वाले ने एक महिला मरीज की रास्ते में ही प्राकृतिक चिकित्सा कर देने के समाचार प्राप्त हुए हैं।
       अस्पतालों में डाक्टर इसी ओवरटाइम में लगे सुने जाते हैं, तो थानों में पुलिस अधिकारी, कालेजों में प्रोफेसर, या जहाँ जो काम करता है वहाँ ओवर टाइम कर रहा है। व्यापारिक कार्यालयों और गैर सरकारी कार्यालय के अधिकारी इस मामले में कोई भेद नहीं मानते। साहब के देर होते ही उनकी पत्नियों के दिमागों में एक ब्लू फिल्म के साथ हथकड़ी लगे जेल ले जाये जाते हुए दृष्य कौंधने लगते है और वेतन के साथ उससे चौगुनी ऊपरी कमाई पर संकट आने के दौरे पड़ने लगते हैं। सेना के कई अधिकारी तक यह मानने लगे हैं कि उनका काम विदेशी हमलावरों से रक्षा करना है और देश तो अपने परिवार की तरह है।
       हमारे पुराणों में तो यदा कदा कोई इन्द्र किसी गौतम ऋषि के घर में कूदता होगा पर आज के इस पवित्र पावन विश्वगुरु देश में सभी इन्द्र होते जा रहे हैं। मन्दिर मस्ज़िद के नाम पर धर्म की रक्षा करने वाले तक अपने धर्म का झंडा उठाये हुए दूसरे धर्मों की महिलाओं से बलात्कार करने को पुण्य का काम मानते हैं और ज़न्नत में अपनी जगह पक्की करवाने में लगे हैं। अगर इतने और ऐसे लोग स्वर्गवासी हो जायेंगे तो या खुदा, स्वर्ग के अपने चरित्र का क्या होगा?
वीरेन्द्र जैन
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