सोमवार, नवंबर 12, 2012

अथ उल्लू गाथा


अथ उल्लू गाथा
वीरेन्द्र जैन

        








जीववैज्ञानिकों के अनुसार उल्लू एक पक्षी होता हैं। चूंकि वह पक्षी होता हैं, इसलिए कभी विपक्षी नही होता। जैसे सारे पक्षी उल्लू नही होते, वे तोते भी हो सकते हैं और कौवे भी वे हंस भी हो सकते हैं और मैना भी, और कई तो कबूतर भी हो सकते हैं और उसमें से भी अटरिया पर चढ़ जाने वाले लोटन कबूतर भी हो सकते हैं। पर इस समय मेरा ध्यान पूरी तरह से उल्लू पर उसी तरह केन्द्रित हैं जिस तरह से सीबीआई का ध्यान नेताओ के चरित्रों पर केन्द्रित हैं।
         उल्लू को हम दो वर्गो  में बांट सकते हैं- एक अपना उल्लू और दूसरा पराया उल्लू।  अपने उल्लू की एक विशेषता होती हैं कि वह हमेशा टेढ़ा रहता है। यही कारण हैं कि इस जमाने के सभी लोग उसे सीधा करने में लगे रहते हैं। आजकल जो लोग अपना उल्लू सीधा नही कर पाते उन्हैं दूसरे लोग उल्लू ही मानने लगते हैं। जब कभी किसी की पत्नी या प्रेमिका किसी को  कहे कि तुम बड़े  ''वो '' हो तो उसे समझ लेना चाहिए कि वह उसे उसके सही उपनाम से पुकारने में शरमा रही है। कुछ लोग तो किंग ब्रूस की तरह मकड़ियों से प्रेरणा पाकर आजीवन अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रयासरत  रहते रहते खुद लंबे हो जाते हैं। इतिहास गवाह हैं किसी ने भी कभी दूसरे के उल्लू को सीधा करने का प्रयास नही किया गया जिसने भी जब भी किया, अपना उल्लू ही सीधा किया।

         व्यक्तियों में भी जो लोग उल्लुओं के रूप में पहचान लिए जाते हैं उनमें भी दो भेद होते हैं। कुछ सचमुच के उल्लू होते हैं, ये सक्रिय किस्म के उल्लू होते हैं तथा दूसरे जड़ किस्म के उल्लू होते हैं उन्हैं काठ का उल्लू कहा जाता है।

         कुछ लोग अपने आप उल्लू बन जाते हैं तथा कुछ को उल्लू बनाया जाता है जिसे वे कई बार समझ जाते हैं और कई बार नहीं समझ पाते। कुछ लोग उल्लू बनने के लिए खुद ही ऐसे गुरूओं के पास जाते हैं जो पूर्ण उल्लू  बन चुके होते हैं तथा अपनी उपलब्धियों को बॉटने के पुनीत कार्य में लगे होते हैं। उनके इन प्रशिक्षणार्थीयों को उल्लू के पट्ठे कहा जाता है। इन पट्ठों में कुछ लोग तो पूरे उल्लू बन जाते हैं और कुछ अधूरे ही रह जाते हैं, उन्हें उल्लू की दुम कहकर पहचाना जाता है। ये आधे तीतर आधे बटेर उल्लू के पट्ठों  की तुलना में अपनी एक अलग पहचान बनाते हैं।

         आमतौर पर उल्लू पुराने महलों- खंडहरों में राजा- महाराजाओं के उत्तराधिकरी के रूप में विचरण करते रहते हैं। वे सदैव ठूंठों पर बैठकर ही बाग- विहार का आनंद लेते हैं पर जब भी वे बगीचे में शाखाओं पर बौद्विक करते हैं तो शायर लोग-बगीचे के बारे में चिंतित होकर कहने लगते हैं कि '' हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजामें गुलिस्तॉ क्या होगा! ''सरकार उनकी शायरी सुन कर उन्हैं किसी पीठ पर बैठा देती है।

         उल्लुओं का कार्य समय रात्रि होता हैं और वे अक्सर ही समाचारों पत्रों के समाचार संपादकों से उनके विश्राम के समय भेंटें करते रहते हैं। इन्सान  भी अजीब पाजी जाति का है। हैंदराबाद के चिड़ियाघर में पिछले दिनों एक ऐसा आश्रय बनाया गया हैं जहॉ पर दिन में बिजली से हल्की नीली रोशनी की जाती हैं और उल्लू रात्रि समझकर वहॉ विचरण करने लगते हैं जिसे देखकर दर्शक  उसी तरह आनंदित होते हैं जैसे विभिन्न तलों वाले दर्पणों में अपना छोटा बड़ा प्रतिबिब देखकर बच्चे आनंदित होते हैं। रात्रि में उस आश्रय में पीली रोशनी की जाती हैं और उल्लू दिन समझकर सो जाते हैं।
         लगता हैं मनुष्य, मनुष्यों को बनाते रहकर ऊब गया हैं और अब उल्लुओं को उल्लू बना रहा है।

         बेचारे कवियों को तो उल्लू की तुक कल्लू और लल्लू से जोड़ने के खतरे भी उठाने पड़ते हैं पर अब लेखक तो मानने लगे हैं कि अब हमें अभिव्यक्ति के खतरे टालने ही होगें।
----- वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास  भोपाल मप्र
फोन 9425674629  





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें