गुरुवार, जुलाई 01, 2010

व्यंग्य -------जाने कब


व्यंग्य
जाने कब!
वीरेन्द्र जैन
आज से बहुत पहले मौत और ग्राहक का कोई ठिकाना नहीं होता था कि वह जाने कब आ जाये। आज जाने कब आ जाने वाली इस इस सूची में वृद्धि होती जा रही है ।
पहले बरसात समय से होती थी, जून के महीने से ही पुराने अन्डरवियर बनियानें और जूते आदि धो पौंछ कर रख लिए जाते थे ताकि बाहर से निचुड़ते हुये लौट कर बदल लिए जायें क्योंकि सुबह वाले तो दो दिन में सूखने वाले होते थे। आज कल तो बरसात कभी भी किसी भी महीने में हो सकती है और ज्यादातर तो प्रतीक्षा ही रहती है कि जाने कब होगी।
बरसात की तो छोड़ दीजिए, नल का कोई ठिकाना नहीं रहता कि कब आ जायें! सुबह, शाम, दोपहर, देर रात, कभी भी नल आ सकते हैं, जो हमारे कस्बे में वैसे भी दो या तीन दिन में एकाध बार ही आते हैं और उसी एकाध बार का ठिकाना नहीं। जब पूरे मुहल्ले में 'आ गये आ गये' का शोर उठने लगे तो समझो नल ही आ गये क्योंकि जिस उत्साहपूर्ण स्वागत के साथ नल आते हैं उस तरह से मुहल्ले में और कोई नहीं आता, नेता भी नहीं, जमाई भी नहीं। इस पर भी सावधानी के लिए पूरे नगर ने नलों में टोंटियां नहीं लगवायी हैं जिससे तेजी से हवा की सूं सूं सुनकर उनके आने का पता चल सके।
नल ही नहीं नाली साफ करने आने वाले कर्मचारी के आने की भी कोई नियमितता नहीं हैं। लबालब भर जाने और उस पानी में मच्छरों की दो तीन पीढियों के बड़े हो जाने पर जब कभी वह आ जाता है तो किसी अहसान की तरह नाली का कचरा उठा कर बाहर सड़क पर ढेर लगा देता है। फिर उसे उठाने के लिए आने वाली गाड़ी की भी उसी तरह अनिश्चितता बनी रहती है जैसी कि नल और नाली सफाई कर्मचारी की रहती है। जब वह कीचड़ दसों दिशाओं में अपना यश फैला चुका होता है तो उम्मीद की जाने लगती है कि वह जाने कब अचानक कचरा उठाने आ जाये। और वह तब आ भी जाता है जब उसके आने की सारी प्रतीक्षा मर चुकी होती है।
वैसे नलों के आने में राज्य सरकार की जिम्मेवारी होती है क्योंकि जब बिजली आयेगी तब ही तो नल सप्लाई करने वाली पानी की टंकी में पानी चढाया जा सकेगा। अब किसी को पता नहीं रहता कि बिजली कब आयेगी। जिससे भी पूछो वह यही कहता है कि पता नहीं साब ,जाने कब आयेगी। जब बिजली आ जाती है तो नल से पानी चढाने वाले का पता नहीं होता। उसके बारे में चौकीदार बताता है कि वह टेंकर सप्लाई करने वालों से हप्ता वसूलने गया है। पता नहीं वह जाने कब आयेगा ।
बिस्तर पर पड़े पड़े सोच रहे हैं कि नींद जाने कब आ जाये! और जब नींद आती है तभी चौकीदार चिल्लाता है जागते रहो! [चोर जाने कब आ जाये।]
बारह बजे की ट्रेन दो घन्टे लेट होती है तीन घन्टे हो चुकने के बाद स्टेशन पर पता नहीं रहता कि कब आ जाये! प्लेटफार्म के इस कोने से उस कोने तक सारे मुसाफिर सोचते रहते हैं कि जाने कब आ जाये। कोई इन्क्वारी तक नहीं जाना चाहता क्योंकि पता नहीं हम वहाँ पूछने गये और इधर ट्रेन आ जाये। वैसे इंक्वारी वाला पूछने पर हमेशा राइट टाइम बताता है या कहता है कि आने वाली है। उसके लिए जब आ जाती है वही तो राइट टाइम है।
दिन में डाकिये का कुछ निश्चित नहीं रहता कि कब आयेगा और उससे भी ज्यादा तो कोरियर वाले का पता नहीं कि जाने कब आ जाये। सम्पादक की रचना की स्वीकृति अस्वीकृति का पता नहीं रहता कब आ जाये और फिर रचना छप जाने के बाद उसके पारिश्रमिक का भी पता नहीं रहता कि कब आ जाये ज्यादातर तो नहीं ही आता क्योंकि सम्पादक एक टुच्ची सी राशि भेजकर आपका अपमान नहीं करना चाहता, और अगर ज्यादा मिलना होता तो उसके रिश्तेदार क्या मर गये थे जो वो आपसे लिखवाता।
टेलीफोन ऐसा ही उपकरण है कि जाने कब उसकी घन्टी बज जाये। जाने कब मोबाइल पर एसएमएस आ जाये भले ही वो ऐसी रिंगटोन का हो जिसे सुनकर आपको भी शर्म आये और आपसे वार्तालाप करने वाले को भी।
समय बदल जाने से मेहमान तो अब अतिथि नहीं रहे और वे फोन करके ही आते हैं पर अब घर के लोगों का पता नहीं रहता कि वे कब आयेंगे! अपना घर है कभी भी चले चलेंगे।
सरकारें अविश्वास प्रस्ताव के बारे में सोचती रहती हैं कि वह जाने कब आ जाये।
संत कहते हैं कि- राम नाम रटते रहो धरे रहो मन ध्यान, कबहुँ दीन दयाल के भनक परेगी कान। जाने कब उनके कान में हमारे द्वारा लिया हुआ उनका नाम पड़ जाये। जाने कब सीप के मुँह में स्वाति की बूंद पड़ जाये। दीन दयाल की अदालत में कोई र्रोज रोज सुनवाई थोड़े ही होती है। वहाँ भी कम अन्धेर नहीं है। जाने कब, जाने कब, कहीं कोई ठिकाना नहीं अब तो आठ बजने का भी ठिकाना नहीं रहता कि जाने कब बज़ जायें!
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

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