व्यंग्य
मगरमच्छ के आंसू
वीरेन्द्र जैन
आज
मैंने जब से अडवाणीजी की भरी हुयी आँखों वाला फोटो देखा है तब से आंसू ही आंसू याद
आ रहे हैं। संयोग है कि जिस दिन अडवाणीजी की आंसू भरी खबर छपी उसी दिन के दैनिक
भास्कर के ‘आज का शब्द’ स्तम्भ में ‘लार’
पर विचार किया गया था। इसमें बताया गया था कि
‘हिन्दी का लार शब्द संस्कृत के लाला शब्द से
बना है। प्यार और प्रेम की भावना का आद्रता से रिश्ता होता है। आकर्षण हो या अन्य
खिंचाव, परिणति आद्रता ही है।, दुलार, दुलारना जैसे शब्द इसी कड़ी से बँधे हैं।
दुलारा, या दुलारी वही है जो स्नेहासिक्त है। जिसे प्यार किया गया है। जिसे प्यार
किया जाता है वही है लाल। प्रिय, सुन्दर, मनोहर, मधुर, आकर्षक और क्रीड़ाप्रिय ही
ललित है।‘
रामभरोसे
मेरे यहाँ जब भी आता है चाय आने तक अखबार जरूर पढता है और बुन्देली की कहावत- बनी
ना बिगारें तो बुन्देला काय के- की तरह उपरोक्त पढने के बाद पूछने लगा कि क्या लार
आँखों से भी टपकती है।
मैंने
कहा, क्यों नहीं सड़क पर लड़कियों को देख कर तुम्हारे जैसे छिछोरों की लार ही तो
टपकती रहती है।
‘तो फिर ये अखबार वाले उन्हें आँसू क्यों कहते
हैं?’ उसके इस सवाल का मेरे पास
कोई जबाब नहीं था।
अडवाणीजी
फिल्मों से जुड़े रहे हैं। उनकी पत्रकारिता का अनुभव यह है कि वे पहले फिल्मी
पत्रिकाओं में समीक्षाएं लिखते थे। वे पढते भी खूब हैं पर उनके द्वारा पढी जाने
वाली किताबों में ‘स्वेट मार्टिन’ की ‘सफल कैसे हों’ जैसी
किताबें रहती हैं। वे जब लिखते हैं तो आत्मकथा लिखते हैं जो उतनी ही उतनी ही सत्य
है जितनी कि ‘सत्य कथाएं’ होती हैं। जब पहली बार जनता पार्टी शासन में
उन्हें स्थान मिला था, तब उन्होंने सूचना और प्रसारण विभाग ही पसन्द किया था जिससे
कि कलाकारों से निकट रहने का अवसर मिल सके। कुल मिला कर वे अभिनय से कैरियर बनाने
के क्षेत्र से जुड़े महापुरुष हैं जिन्हें प्रधानमंत्री बनने के लिए इस समय अपनी
छवि सुधारना है। भाजपा में वैसे भी चरित्र से ज्यादा छवि सुधारने पर ध्यान दिया
जाता है। जो जाम उठा कर पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं कहते हुए कैमरे
में कैद हो जाते हैं वे छवि सुधारने के लिए ईसाई बन गये आदिवासियों के पैर धो
उन्हें हिन्दू बना कर अपनी छवि सुधारने की कोशिश करते हैं तथा रुपयों में लेकर
डालर में माँग करने वाले राष्ट्रीय अध्यक्ष स्तीफा देकर छवि सुधारते हैं और अपनी
पत्नी को टिकिट दिलवा देते हैं।
जिगर का दर्द जिगर में रहे तो अच्छा है
जिगर का दर्द जिगर में रहे तो अच्छा है
ये
घर की बात है, घर में रहे तो अच्छा है
एक
फिल्मी गीत में कहा गया है कि- आँसू मेरे दिल की जुबान हैं, तुम कह दो तो रो दें
आंसू, तुम कह दो तो हँस दें आंसू..............। एक दूसरे गीत में भी कहा गया है – हजारों तरह के ये होते हैं आंसू, अगर दिल में
गम हो तो रोते हैं आंसू, खुशी में भी आँखें भिगोते हैं आंसू , इन्हें जान सकता
नहीं ये जमाना। मैं खुश हूं मेरे आंसुओं पै न जाना.............। अभिनय की दुनिया
से जुड़े लौहपुरुष भी आँसुओं का तरह तरह से उपयोग करके अपनी कट्टरतावादी छवि का
मेकअप करने लगे हैं ताकि कट्टरता मोदी के हिस्से में चली जाय और ये अटल बिहारी का
मुखौटा ओढ लें। 6 दिसम्बर 92 को जब रथयात्री का रूप धर कर बाबरी मस्जिद ध्वंस
कराने पहुँचे थे तब दिल्ली सम्हालने के लिए नियुक्त अटल बिहारी ने संसद में कहा था
कि जब बाबरी मस्जिद टूट रही थी तब अडवाणीजी का चेहरा आँसुओं से भरा हुआ था। समझने
वाले समझ सकते हैं कि ये आंसू गम के थे या खुशी के थे। दूसरी बार जब रंग दे बसंती
फिल्म को गुजरात में चलने नहीं दिया गया था और फिर भी उस बेहतरीन फिल्म ने रिकार्ड
तोड़ सफलता पा ली थी तो अडवाणी जी को लगा था कि आमिर खान की लोकप्रियता से पार्टी
को नुकसान हो सकता है। इसकी भरपाई करने के लिए वे उसकी अगली फिल्म ‘तारे जमीं पर’ देखने पहुँच गये और फिल्म देख कर इस तरह रोये कि
पत्रकारों तक को भ्रम हो गया कि अडवाणीजी के सीने में दिल भी है। छवि सुधारने वाली
इस यात्रा में भी वे बार बार रो कर अपनी छवि से कट्टरता का धब्बा धुलवा लेना
चाह्ते हैं। वे 2002 में गोधरा और उसके बाद हुए गुजरात के नरसंहार पर फैसला आने पर
कुछ नहीं कहते जिससे उनके आँसुओं पर हँसी आती है। गुजरात के दंगा पीड़्तों और
आस्ट्रेलियन फादर स्टेंस को दो मासूम बच्चों अहित जिन्दा जला दिये जाने पर जब यही
काम अटल बिहारी ने किया था तब अडवाणीजी हत्यारों की रक्षा करने की ड्यूटी निभा रहे
थे, सो मोदी को सबसे योग्य मुख्यमंत्री बताया था।
अभिनय
तो आवश्यकता अनुसार ही किया जाता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
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