मंगलवार, जुलाई 21, 2009

दुष्यंत की ग़ज़लों की पैरोडी -1

दुष्यंत की गजलों की पैरोडियाँ - 1
यह 1974-75 के साल थे जब दुष्यंत कुमार की गजलें सारिका और धर्मयुग में छपना प्रारंभ हुयी थीं व मैं इन पत्रिकाओं की प्रतीक्षा प्रेमिका की तरह किया करता था। मेरी राजनीतिक सोच के कारण मुझे इन गजलों ने भीतर तक छू लिया था। यह बात तो उनकी अचानक मृत्यु हो जाने के बाद में सामने आयी कि उस समय भी पूरे देश में उनकी गजलों के दीवाने लाखों की संख्या में थे।
पैरोडियाँ हमेशा ही ऐसी कविता या गीत की लिखी जाती हैं जो बेहद लोकप्रिय हो व जिसको पढ कर मूल कविता की याद ताजा हो जाये। मैं उन दिनों हिन्दी की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में व्यंग कविताएं लिखा करता था जिनमें धर्मयुग, माधुरी, रंग (रंग-चकल्लस) साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी, हिन्दी ब्लिट्ज, करंट, आदि थीं। दुष्यंत कुमार की लोकप्रियता के बाद मैंने उनकी बहुत सारी लोकप्रिय गजलों पर पैरोडियां लिखीं थीं जिनमें से कुछ तो तात्कालिक राजनीतिक परिदृश्य पर थीं, पर कुछ ऐसी थीं जो अब भी चुटकी ले सकने में संभव हैं।
वीरेन्द्र जैन- भोपाल
(मूल गजल का मतला था- मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे
मेंरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आयेंगे

मिला निमंत्रण सम्मेलन का गीत, सुनाने आयेंगे
गीतों से ज्यादा अपना पेमेंट पकाने आयेंगे
बड़ बड़े कवि ले आयेंगे प्यारी प्यारी शिष्याएं
निज बीबी से दूर रंगरेलियां मनाने आयेंगे
नामों से बेढंगे, रंगबिरंगे, हास्यरसी कविवर
चोरी किये हुये फूहड़ चुटकले सुनाने आयेंगे
उनको क्या मालूम विरूपित इस कविता पर क्या गुजरी
वे आये तो यहाँ सिर्फ छुिट्ट़यां मनाने आयेंगे

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