व्यंग्य
शेयरों के शेरों का पुर्नजीवन वीरेन्द्र जैन
जब शेयरों के दाम मिग विमानों की तरह गिरने लगते हैं तब घर की मशीनों के दिन फिरने लगते हैं उनकी धूल पौंछ दी जाती है और शेयर बाजार जाने के बहाने घर से बाहर निकलने वाले सेवानिवृत्तों को काम मिल जाता है। घर के प्लास, पैंचकश, पाना, हथौड़ा, कीलों का डिब्बा, ग्रीस का डिब्बा, तेल की कुप्पी, फटे पुराने कपड़े जो अब केवल पौंछने के काम आ सकते हैं, ब्रुश और चश्मा एक जगह एकत्रित कर लिया जाता है। पुराने पंखे, कूलर, स्कूटर, कार, मिक्सी, हीटर, कन्वेटर आदि पर अनुभवी दिमाग अपने शिथिल होते जा रहे हाथों के कमाल दिखाने को उतावले हो जाते हैं। घर के बच्चे अपने दादा जी के करतब देखने के लिए इस तरह घेरकर बैठ जाते हैं जैसे कि चौराहे के मदारी को घेरते हैं। पेंचों और ढिबरियों को खुलते हुऐ देखना तथा उस खुलने के साथ ही उपकरण के अंग अंग का बिखरना बच्चों को नवअनुभव स्फुरण से भर देता है। वे एक एक गरारी को छू कर देखना चाहते हैं पर खुर्राट, दादा जी उन्हें दूर रहने की घुड़.की देते रहते हैं। अपने हाथ चिकने और काले होने की चिन्ता किये बिना वे एक एक पुर्जे को पोंछ कर आवश्यकतानुसार ग्रीस लेपन करके एक ओर रखते जाते है।
इस ओवर हालिंग के बाद दादा जी उपकरण को दुबारा वैसा ही फिट करके चलाकर देखना चाहते हैं पर अक्सर ही वे फिट करना भूल जाते हैं। दो तीन बार दो तीन तरह से जोड़ कर पैंच कसते हैं पर कोई न कोई हिस्सा कहीं छूट ही जाता है। कई बार समझ में नहीं आता है कि ये छूट गया पेंच या ढिबरी कहॉ फिट थी। डरते हैं कि कहीं इसके बिना मशीन चलाकर देखी तो कुछ टूट और फंसकर न रह जाये। वे झुंझलाते हैं और बच्चों को घुड़कते हैं, और फिर पूरी मशीन खोलते हैं। जब समझ में नहीं आता तो एक कोने में समेट कर मैकेनिक के निमित्त उसे ऐसे छोड़ देते हैं जैसे मरीज के रिश्तेदार मंहगे डाक्टरों से इलाज कराने के बाद भी ठीक न होने वाले मरीज को भगवान भरोसे छोड़ देते है।
दादा जी रगड़ रगड़ कर हाथ धोते हैं पर न कालिख पूरी तरह छूटती है और न गंध। हाथों में मिट्टी का तेल और डिटर्जेन्ट मलते हैं और फिर मिट्टी के तेल की गंध छुड़ाने के लिए फिर धोते हैं पोंंछते हैं। खुशबूदार तेल लगाते हैं और सूंघते हैं धीमी धीमी गंध फिर भी आती रहती है। वे आने देते हैं कि और क्या करें ! जैसे शेयर के दाम गिर जाने पर शेयरों को डले रहने देते हैं और क्या करें। दिन ही खराब चल रहें हैं। एक ओर शेयर के भाव गिर रहे हैं दूसरी ओर हाथों की गंध नहीं जा रही। नहीं जा रही तो न जाये - क्या कर सकते हैं। मंदिर जाते है तो मन नहीं लगता। ऐसा लगता है कि सब समझ रहे हैं कि ये क्या करके आ रहे हैं।
प्रापर्टी में बड़ा रट्टा है। एक एक जमीन को लोग तीन तीन लोगों को बेच देते हैं । अब जिसे केवल इन्वेस्टमेंट करना है वो पजेशन लेने थोड़े ही जायेगा। वो तो रेट बढाने के लिए खरीदता है। दाम के दाम गये और रजिस्ट्री खर्च भी गया । दूसरे को बेचेगें तो वह तो तुम्हारे ऊपर ही सवारी गांठेगा। बड़ा झंझट है। दादा जी की समझ में नही आता कि पैसे का क्या करें। पूरी उम्र जैसे कमाया है उसे मेहनत करके कमाया मानते हैं। साठ रूपयें से नौकरी शुरू की थी चालिस साल बाद रिटायर होते समय अट्ठारह हजार मिलते थे। पर मानसिकता एक बार बन गई, सो बन गयी। वह जिन्दगी भर साठ रूपये वाली ही रही। सोच समझ के खर्च करना। वे तब से उपभोक्ता फोरम के सोशल एक्टिविस्ट जैसे हैं जब कोई उपभोक्ता फोरम का नाम भी नहीं जानता था । दो रूपयें की चीज डेढ़ रूपयें में खरीदने पर उतारू। उनसे सवा दो तो कोई किसी हालत में नही ले सकता था। खराब निकल आये तो दुकानदार के सिर पर मार आयें और पैसे वापिस ले आयें। रिटायरमेंट पर जो पैसा मिला था उसमें से सात साल बीत जाने तक भी घटा कुछ नहीं। बढ़ता ही रहा। चाहे ब्याज से या छोटे मोटे लेन देन से। पिछले दो सालों से दूसरे बूढों के साथ में शेयर बाजार जाने लगे थे। समय कटता था और दो चार सौ का लाभ कमा लेते थे। पर सरकार बदली सो देशभक्त बंदेमातरम कहते हुये बाजार धरती माता को चूमने लगे। तीस हजार का नुकसान हो रहा था। जिन्दगी में पहली बार घाटा खाने का अनुभव सामने आया सो बेचैैनी बढ़ने लगी। शेयर बाजार जाना बन्द हुआ सो समय काटे नहीं कटता था। घर की मशीनें सुधारने बैठे सो वे पुर्जो में बदल गयीं। मिस्त्री के पास ले जायेगें तो मनमाना मांगेगा।
बैकों की फिक्सड डिपोजिट पूरी हो गयी थीं। बदलवायीं तो ब्याज दरें आधी रह गयी थीं।पछता रहे थे कि उसी समय ही पांच साल के लिए ही क्यों न करा लीं थीं। हर तरफ घाटा ही घाटा और मंहगाई ऊपर चढने लगी। बिजली मंहगी हुयी, गैस मंहगी हुयी, पेट्रोल मंहगा हुआ। ऐसे लोग मरने के लिए भी किसी हादसे का इंतेजार करते है। ताकि अंतिम संस्कारों के लिए दस पचास हजार सरकार से मिल जायें और बाकी बीमा से दुगनी राशि मिले।
पर, हादसा होने से पहले ही शेयरों के दाम चढ़ना शुरू हो गये। उनके सहारे दादाजी भी चढ़कर निराशा के कुएं से बाहर निकल आये और खोल डाली गयी मशीनों को मैकेनिक के यहॉ भिजवाने की सोच रहे हैं।
बच्चे नागार्जुन की कविता पढ रहे थे- बछिया ने फिर ली अंगड़ाई बहुत दिनों के बाद, कौवे ने खुजलायीं पाखें बहुत दिनों के बाद।
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वीरेन्द्र जैन
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जिन्दगी भर साठ रु वाली रही -सत वचन वीरू भाई
जवाब देंहटाएंइसी वेतन पेन्शन वृद्धि से बढ़ रही है मंहगाई