रविवार, मार्च 28, 2010

व्यंग्य - दुखी होने में^ सुखी होने waale

व्यंग्य
दुखी होने में सुखी होने वाले
वीरेन्द्र जैन
वे रोते हुये पैदा हुये थे और जिन्दगी भर तक उसी अवस्था में बने रहना चाहते हैं। चाहते तो वे ये भी हैं कि जब ये दुनिया छोड़ के जायें तो कोई भी हँसता हुआ नहीं मिले, पर ऐसा होता कहाँ है कि चाहा हुआ पूरा हो जाये। वे कई दिनों तो इसी बात पर दुखी हो चुके हैं कि ये दुनिया लोगों के दुखी होने पर भी हँसती है और कुछ ज्यादा ही हँसती है। केले के छिलके पर पैर पड़ने से न जाने कितने लोग गिरे पर होंगे पर उससे कई गुना लोग उन गिरते हुये लोगों को देख कर हँसे होंगे। लोग अन्धों पर हँसते हैं, बहरों पर हँसते हैं, लंगड़ों पर हँसते हैं कुबड़ों पर हँसते हैं, तुतलों पर हँसते हैं, हकलों पर हँसते हैं। पड़ोसी का बच्चा फेल हो जाये तो हँसते हैं और पड़ोसी की लड़की किसी लड़के के साथ भाग जाय तो हँसते हैं, पर अगर पड़ोसी की लड़की किसी दूसरी लड़की के साथ भाग जाये तो और ज्यादा हँसते हैं।
उन्हें लगता है कि यह दुनिया दुखी होने के लिए ही बनी है और जिस दिन लोग दुखी होना बन्द कर देंगे उस दिन ये दुनिया नष्ट हो जायेगी। बुद्ध ने कुछ लोगों के दुख को देख कर सन्यास लेने का फैसला किया था ताकि दुनिया का दुख दूर करने के बारे में सोच सकें। तभी वे भगवान बन सके। आज सारी दुनिया में बौद्ध धर्म इसी कारण से तो छाया हुआ है भले ही इसे झुठलाने के लिए लॉफिंग बुद्धा को प्रचारित कर दिया गया। हिन्दुओं ने इसे मृत्युलोक कहा है और जैनों का तो कहना है कि दुनिया दुखों की खान है तथा सच्चा आनन्द तो मोक्ष में है।
वे सुबह से दुख की खोज में ऐसे निकलते हैं जैसे कि मछुआरे मछली पकड़ने के लिए निकलते हैं। सर्दी हो तो दुखी हो जाते हैं, और गर्मी हो तो दुखी हो लेते हैं। हवा ज्यादा चल रही हो तो दुख है और हवा न चल रही हो तो दुख है। बरसात नहीं हो तो फसल कम होने की आशंका में दुखी होते हैं और ज्यादा होने पर बाढ आने की आशंका में दुखी होते हैं। बरसात हो तो कीचड़ होने व कपड़े न सूख पाने के कारण दुखी होते हैं और न हो तो बीमारी फैलने की आशंका में हो लेते हैं।
लड़कियां कम कपड़ों में दिखें तो दुखी होते हैं और मुँह पर दुपट्टा लपेटे दिखें तो भी दुखी हो लेते हैं। बस देर से आये तो दुखी होते हैं और ज्यादा बसें आने पर वे ट्रैफिक के बहुत बढ जाने व प्रदुषण वृद्धि पर दुखी हो लेते हैं
उनसे कोई अखबार मांगे तो दुखी मन से देते हुये कहते हैं, कुछ खास नहीं है आज। वे चाहते हैं कि एक दो दुर्घटनायें, पांच सात कत्ल, एकाध दर्ज़न बलात्कार, कहीं साम्प्रदायिक तनाव, आदि नहीं घटे तो अखबार के पैसे बेकार गये। जब ट्रेन में बार बार टिकिट चेकर आता है तो दुखी होते हैं पर जब कहीं टिकिट चेक नहीं होता तो और ज़्यादा दुखी होते हैं कि टिकिट के पैसे बेकार गये। अगर टीसी ट्रेन में ही रिजर्वेशन दे दे तो उन्हें लगता है कि भीड़ नहीं थी जनरल डिब्बे में भी जया जा सकता था, और नहीं दे तो उन्हें लगता है कि साला ऊपर से पैसे देने वालों को ही देगा। रिजर्वेशन के डिब्बे में कम सवारियाँ हों तो उन्हें खुद को खर्चीला और दूसरों को मितव्ययी होते जाने का दुख होने लगता है।
सरकारी काम में देर लगे तो भ्रष्टाचार की आशांका में दुखी होते हैं और अगर सचमुच रिशवत देकर काम निकालना पड़े तो कई दिनों के दुखों का स्टाक एक साथ पा लेते हैं।
बच्चे खेलने जायें तो दूसरों से लड़ाई झगड़े का डर सताने लगता है और न जायें तो वे बीमार लगने लगते हैं। घर का कोई सदस्य देर से घर आये तो उन्हें दुर्घटना की तरह तरह के नमूने दुखी करने लगते हैं। छींक आने पर निमोनिया और फुंसी होने पर उन्हें केंसर की गांठ का अनुमान होने लगता है।
बाजार में अगर सुन्दर सब्जी मिले तो उन्हें आयतित खाद से दूषित नजर आने लगती है और खराब मिले तो गाँव की याद आने लगती है। मिठाई में नकली मावा, नमकीन में खेसरी दाल ,धनिया में लीद, और काली मिर्च में पपीते के बीज होने का ख्याल स्वाद लेने से पहले ही लेने लगते हैं। दूध वाले के आते ही उन्हें पानी की मिलावट का ध्यान आता है और डेरी के दूध में पाउडर मिल्क सूंघ लेते हैं। घी के बारे में तो बिल्कुल ऐसे आश्वस्त रहते हैं कि वह नकली ही होगा, जितना कि कोई आस्तिक ईश्वर के बारे में होता है जिसे उसने तो क्या उसकी सात पीढियों ने भी नहीं देखा होता।
साहित्य में अच्छी रचना उन्हें विदेशी साहित्य की नकल लगती है और खराब रचना उससे भी ज्यादा खराब लगती है जितनी कि वह होती है। छंद उन्हें गंवारू लगता है और नई कविता पागलपन। गीत किशोर वय का रूमान लगता है और वीर रस को भौंकने से अधिक महत्व तब देते हैं जब मंच पर हास्य व्यंग्य के नाम पर चुटकलेबाजी दिखती है। बड़ी रचना को बकवास मानते हैं और छोटी रचना को चुटकला समझते हैं। चुटकले को तो वो रचना मानते ही नहीं जबकि सबसे पहले उसी को पढते हैं। किसी को पुरस्कार मिले तो वह जुगाड़ होता है और नहीं मिले तो अन्याय कि आखिर यह आदमी बेकार ही इतने कागज काले करता रहा। इससे तो सट्टा खिला कर ज्यादा कमा लेता।
जब काम होता है तो वह बहुत होता है और जब काम नहीं होता तो वक्त उन्हें काटने को दौड़ता है। कोई नमस्कार नहीं करता तो उन्हें दुनिया में समाज नष्ट होता नजर आता है और कोई नमस्कार करे तो उन्हें किसी स्वार्थ की गंध आने लगती है।
गांव जाते हैं तो बिजली की कमी, गन्दगी और निठल्लापन बुरा लगता है, और शहर में बढती आपाधापी, स्वार्थ, मंहगाई, प्रदूषण, आदि परेशान करते हैं। उन्हें जब भी दिखता है बुरा दिखता है। उनका अलिखित सिद्धांत है कि मूल तो दुख है, और सुख तो एक भ्रम है जो कभी कभी बादलों की तरह छा कर छंट जाता है।
वे आत्महत्या के सर्वाधिक सुपात्र व्यक्ति हैं जिसे वे कभी नहीं करेंगे क्योंकि उसके बाद वे दुखी नहीं हो सकेंगे, जिसके लिए वे जी रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र फ़ोन 9425674629

2 टिप्‍पणियां:

  1. लगता है वीरेन्द्र जी भी इस बेचारे के दुख में दुखी हैं, वर्ना इतनी बढ़िया रचना नहीं बन पाती।

    प्रमोद ताम्बट
    भोपाल
    www.vyangya.blog.co.in
    www.vyangyalok.blogspot.com

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  2. लेकिन मैं दुखी नहीं हुआ आपकी इस रचना को पढ़कर.

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