गुरुवार, मई 20, 2010

व्यंग्य- न साधु की जात पूछो और न ज्ञान्

व्यंग्य
न साधु की जाति पूछो और न ज्ञान
वीरेन्द्र जैन
यह कहना गलत है कि साधु की जाति नहीं होती। साधु की जाति तो होती है किंतु वह बताना नहीं चाहता। हमारे नीतिज्ञों ने कहा है- जाति न पूछो साधु की, पूछ लीज़िए ज्ञान
ये बातें अगर सही अर्थों में स्मझी जायें तो बहुत काम की हैं, भल्र ही थोड़ी बहुत मुश्किल हैं। बहरहाल पहली बात पर आयें और गौर फरमाएं कि नीतिज्ञों ने कहा है कि साधु की जाति तो होती है, पर पूछिएगा मत क्योंकि ज्यादातर साधु उन्हीं जातियों में से बनते हैं जो समाज में निचली समझी जाती रही हैं। ऊंची जाति वाले तो वैसे ही मालपुये उड़ाते रहते रहे हैं सो उन्हें आधुनिक साधु बनने के पाखण्ड की क्या ज़रूरत! ये पुरानी कहावत पहले भी सही थी और उस स्तिथि में अभी भी कोई खास फर्क नहीं आया है। मानलो राम भरोसे ने किसी साधु से उसकी जाति पूछ ली-
“महाराज कौन ठाकुर हौ?” अब यदि बाबा किसी दलित मानी जाने वाली जाति में से हुआ तो वो क्या बताएगा। वह आँखें दिखा सकता है, गुस्सा दिखा सकता है, गाली दे सकता है, श्राप दे सकता है पर जाति बता कर अपने धन्धे का भविष्य खराब नहीं करना चाहता, भले तुम्हारा कर दे। इसलिए समझदारी इसी में है कि उसकी जाति मत पूछो।
पर एक स्तिथि ऐसी भी आती है जब साधु को दोनों जहाँ की फिक्र सताने लगती है और वह राजनीति में कूद पड़ता है। बस यहीं उसे अपनी जाति बताना पड़ती है। साधु हो या साध्वी उसे बताना पड़ता है कि वह लोधी है या यादव है जिससे लोधी या यादवों के वोटों को देखते हुये उसे टिकिट मिल सके और टिकिट मिलने के बाद वोट भी मिल सकें।
सन्यासी जब होंगे तब होंगे अभी तो प्रत्याशी हैं और प्रत्याशी की जाति जाने बिना वोट नहीं मिलते। तुन सड़क बनवा दो पुल बनवा दो, स्कूल खुलवा दो अस्पताल खुलवा दो और अगर पहले से खुला हुआ है तो उसमें डाक्टर और मास्टर पोस्ट करा दो, यदि पोस्ट हैं तो उनका आना सुनिश्चित करवा दो, पर यदि अपनी जाति के नहीं हो तो सब बेकार। इन साले वोटरों के बच्चों को जैसे वोट नहीं देना हो अपनी बेटी व्याहना हो। सो साधु को भी जाति खोलना पड़ती है।
भले बाबा का ढाबा चल निकले और योग की डिश खूब बिकने लगे पर आयुर्वेदिक दवाओं की फैक्ट्री में फायदा तभी हो सकता है जब मज़दूरों को ठीक से वेतन न देना पड़े और सरकार की उदार सहायता मिलती रहे। सो लालू और मुलायम को बताना पड़ता है कि तुम भी यादव हम भी यादव। बाबा बन गये पर जात नहीं भूले।
में किरार मुख्यमंत्री हो तो लोधी साध्वी को प्रदेश में स्थान नहीं मिलता। उसे अपनी तशरीफ लोधी बहुल दूसरे राज्य में ले जाकर अपने चोगे के रंग को भुनाने की सलाह दी जाती है-
जोगी तुम जाओ रे,
ये है धन प्रेमियों की बस्ती,
यहाँ पैसा ही है ईश्वर
जोगी तुम जाओ रे.................
[ पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं]

बेचारा साधु अपना इकतारा बजाता हुआ अपनी जाति वालों के पास चला जाता है। यही सत्य है यही ईश्वर है। आखिर में अंतिम संस्कार अपनी जाति वाले ही करते हैं। दूसरी बात कि अगर आप साधु का ज्ञान पूछने लगे तो आपका कल्यान निश्चित है। वे मोटे मोटे डंडे, चिमिटा और त्रिशूल आदि इसीलिए रखते हैं कि ज्ञान पूछने वाले का संज्ञान ले सकें। साला, हमारा ज्ञान पूछता है, कपड़ों का रंग नहीं देखता। हमने ये रंग चुना यही हमारा ज्ञान है। हम साधु हैं और चाहे जिस भक्त पर जीप चढा दें, कानून हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। नंगों से भगवान भी डरता है ये तो उस सरकार की पुलिस है जो इस बात पर भी अपनी पीठ खुद थपथपाती है कि साधु की जीप से इतने कम लोग मरे, कुम्भ सफल रहा। साधु कोई राज्यपाल थोड़ी है कि उसका स्टिंग आपरेशन हो जाये तो स्तीफा देना पड़े या साड़ी लुटाकर पचासों औरतों को मार दे और अंतर्ध्यान हो जाये। भगवा पहिन कर कुछ भी करते रहो और फिर भी देश सेक्युलर होने का ढिंढोरा पीटता रहे। जय हो।
इसलिए न साधु की जात पूछना और ना ज्ञान पूछना इसी में कल्याण है। नचिकेता की कथा यही कहती है कि ज़िन्दा रहना चाहते हो तो कुछ मत पूछो।
वीरेन्द्र जैन
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