शौचालय और मोबाइल की क्या तुलना
वीरेन्द्र जैन
कभी आदमी की मौलिक ज़रूरतों में रोटी कपड़ा और मकान हुआ करता था किंतु अब प्रथिमिकताएं बदल गई हैं, रोटी कपड़ा और मकान की जगह रोटी कपड़ा और मोबाइल ने ले ली है।
मकान न हो तो चलेगा। वैसे भी अगर मोबाइल आ जाये तो आदमी मकान से बाहर ही निकलता है। ओशो रजनीश की भाषा में कह सकते हैं कि मकान से मोबाइल तक अर्थात मकान पहला कदम है और मोबाइल उसकी मंज़िल। जो पहले कदम पर ही जम कर बैठ गया तो उसे मंज़िल कैसे मिलेगी। पहला कदम ज़रूरी है पर उसी पर टिक कर नहीं रह जाना है। ओशो यही सिखा गये हैं।जड़ से चेतन की ओर यात्रा।
मकान है और मोबाइल आ गया तो पड़ोसियों को कैसे पता लगेगा कि हमारे पास मोबाइल आ गया है तो सिग्नल बाहर आकर ही मिलते हैं और इसी बाहर आने से सिग्नल बाहर तक पहुँचते भी हैं। मोबाइल आ गया तो अपनों के प्यार भरे फोन भी आयेंगे और फोन आयेंगे तो बातें भी होंगीं अब वे बातें ऐसी तो होती नहीं जैसे कि सास बहू के सीरियल हों या झगड़े हों, जो घर परिवार के सभी सदस्यों के बीच कह-सुन ली जायें सो बाहर तो निकलना ही पड़ेगा। कहने का मतलब यह कि मोबाइल ने आदमी को मोबाइल अर्थात गतिवान बनाया है। घर से बाहर निकल खेत की ओर चल.....[निदा फाज़ली से क्षमा याचना सहित]
मोबाइल के कई उपयोग होते हैं जैसे कि आप उसे कान से लगाकर प्राणांतक कवि गोष्ठी से बाहर निकल कर सुख-संतोष की सांस ले सकते हैं, और कोई आपको सींग पुच्छविहीन पशु भी नहीं कह सकता है, क्योंकि ज़रूरी काल आया है। इसकी कालर ट्यून तो मरघट तक में हो गयी तेरी बल्ले बल्ले कर सकती है।
कितने गिनवाऊँ मोबाइल के फायदे ही फायदे हैं, पर कुछ लोग हैं जिन्हें तुलना करने की बीमारी होती है वे तुलना ही करते रहते हैं जैसे कि कोई कांग्रेसी कहे कि भाजपा ने गुजरात में गुजरात में तीन हज़ार मुसलमान मार डाले तो वे पलट कर कहते हैं कि इससे ज्यादा तो तुमने 1984 में सिख मार डाले थे। ऐसे ही लोग कहते हैं कि देश में शौचालय से अधिक मोबाइल हो गये हैं। अरे भाई शौचालय अपनी जगह और मोबाइल अपनी जगह। यही देखो कि शौचालय मोबाइल में तो आ नहीं सकता किंतु मोबाइल शौचालय में जा सकता है। छोटे बच्चे तक अपनी मम्मी से कहने लगे हैं कि मम्मी तुम टायलेट से बाहर रहो और मोबाइल से पूछती रहो कि छिछ्छी की या नहीं। शौचालय का उपयोग दिन में एक दो बार होता है किंतु मोबाइल का उपयोग दिन में दो सौ बार हो सकता है। शौचालय में तो अनावश्यक रूप से पानी की बरबादी होती है क्योंकि किये कराये पै पानी फेरना होता है किंतु मोबाइल में एक बून्द भी पानी की चली जाये तो उसकी बोलती बन्द हो जाती है। यही कारण है कि पानी बचाओ आन्दोलन वाले उसी पेज पर मोबाइल के दस बीस विज्ञापन छापते रहते हैं जिस पेज पर पानी बचाने की दस बीस लाइनें छपी होती हैं। पानी बचाने की यह भी एक तरक़ीब है कि मोबाइल को पास रखो जिसे पानी से दूर रखना पड़ता है। शौचालय को गन्दा स्थान समझा जाता रहा है कि जिसमें आदमी को मजबूरी में ही जाना होता है और वह वहाँ से शीघ्रातिशीघ्र बाहर आना चाहता है किंतु मोबाइल ऐसी चीज होती है जिसे दिन में तो क्या रात में भी दूर नहीं रखा जाता। साइलेंट या बाइब्रेशन मूड में तो इसे दिल के और ज्यादा करीब रखा जाता है। क्या कभी किसी ने मोबाइल में से बदबू आने की शिकायत की है या मोबाइल सुधारने वाले को किसी ने कभी अछूत समझा है? शौचालय जड़ है जबकि मोबाइल चेतन होने के सारे गुण रखता है वह धड़कता है, बोलता है, गाता है, संगीत सुनाता है, मनोरंजन करता है, सन्देशों का आदान प्रदान करता है। अब आप ही बताइए कि मोबाइल की शौचालय से क्या तुलना?
हमारे ऋषि मुनि जब हिमालय पर तपस्या करने जाते थे तो महीनों सालों तक शौचालय के बारे में सोचते तक नहीं थे किंतु अपनी आत्मा के मोबाइल से परम पिता परमात्मा से डायलोग करते रहते थे। यह हमारी पुरानी परम्परा का थ्री जी सिस्टम था जिससे संजय युद्ध का ताजा हाल महल-बैठे अन्धे धृतराष्ट्र को सुनाता रहता था। अनेकानेक जगहों को हमने महाभारत काल, रामायण काल के स्मारकों की तरह संरक्षित कर रखा है किंतु इन पौराणिक काल की पांडव कुटीरों आदि में कहीं भी शौचालय नज़र नहीं आते। ये गन्दी सोच तो आज के लोगों की है कि शौचालय के बारे में सोचते हैं। हमारे किसी भी काल के किसी भी पौराणिक ग्रंथ में इसे समस्या के रूप में नहीं लिया गया और ना ही वर्णन किया गया। जबकि बाकी के सारे काम किये जाने के श्लोक मिल जाते हैं। इसलिए अगर शौचालय की तुलना में मोबाइल बढ रहे हैं तो स्वाभाविक है। दर असल जिनके यहाँ शौचालय नहीं हैं उन्होंने कभी चिंता प्रकट नहीं की, आज तक कोई आन्दोलन शौचालय की माँग को लेकर नहीं हुआ, जबकि यह खुरापात तो उनके दिमागों की उपज है जिनके यहाँ एक बैड रूम से अटैच रहता है और दूसरा बाथ रूम से। जिनके यहाँ शौचालय नहीं हैं वे पक्के राष्ट्रवादी हैं और पूरे देश को माँ की गोद समझते हैं। मिनरल वाटर की बोतल में सादा पानी भरा और लोगों की नज़रें बचा के जहाँ जगह मिली सो हज़रते दाग की तरह बैठ गये, बैठ गये। और एक बार जहाँ बैठे वहाँ दुबारा नहीं देखा। हर बार एक नई जगह की तलाश में कोलम्बस की तरह निकल पड़ते हैं।
इसलिए प्यारे भाइयो, बहिनो और पत्रकार बन्धुओ, कृपया मोबाइल से शौचालय की तुलना न करें अपितु शौचालय से शौचालय की और मोबाइल से मोबाइल की तुलना करें। तुलना बराबरी वालों में ही ठीक रहती है।
वीरेन्द्र जैन
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काफी गहन अध्ययन किया है शायद शौचालय में बैठकर मोबाइल के बारे में या मोबाइल पर बतियाते हुए शौचालय के बारे में
जवाब देंहटाएंbahut khub
जवाब देंहटाएंkafi soch he mibile ke bare me aap ne
achchha vyangya.. sanesha ki tarah apne hi kism ka manjaa hua vyangy.badhai.
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