शनिवार, मई 22, 2010
व्यंग्य--- छोटा मुंह बड़ी बात
व्यंग्य
छोटा मुँह बड़ी बात
वीरेन्द्र जैन
शासकों ने अभिव्यक्ति पर रोक लगाने के हजारों तरीके समय- समय पर विकसित और प्रयुक्त किए हैं, उनमें से सबसे बारीक तरीका साहित्यकारों, लेखकों द्वारा वाणी पर प्रतिबंध का संवेदनात्मक प्रचार कराना भी है।
अंग्रेजी में कहावत है कि '' इफ स्पीच इज सिल्वर देन साइलेंस इस गोल्ड '' वहीं, अपने यहॉ कहा गया है कि '' एक चुप सौ को हराती है ''। वाणी स्वातंत्र के इस युग में भी कहावत प्रचलित है कि '' मूर्ख अधिक बोलता है''। कवियों शायरों ने भी वाणी की जगह मौन रखने का प्रचार किया है। एक कवि कहते है:-
शब्द तो शोर है तमाशा है
भाव के सिंधु में बताशा है,
मर्म की बात होंठ से न कहो
मौन ही भावना की भाषा है।
शब्द की जगह इशारों की अधिक तारीफ करते हुए एक गीतकार कहता है कि '' इशारों- इशारों में दिल लेने वाले बता, ये हुनर तूने सीखा कहॉ से । ''
या -
नैन मिले उठे झुके, प्यार की रात हो गई,
मौन का मौन रह गया बात की बात हो गई।
आज के रैप और पॉप के युग में भी फिल्मी गीतकार
'' कुछ न कहो, कुछ भी ना कहो'' का राग अलाप रहे हैं जबकि पहले तो फिल्मों के नाम तक ''मैं चुप रहूँगी'' ''खामोशीी'' आदि हुआ करते थे और गीतकार कहते है कि
''सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो ''
शब्द की शक्ति को समाप्त करने का सुन्दर षडयंत्र इस गीत में निहित है कि '' ऑखों- ऑखों में बात होने दो। ''
कुछ लोग अपने आप ही अनुशासन पर्व मनाने और गाने लगते हैं
'' अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नही कहते''
कुछ न बोलते हुए भी बोलने की धमकी देते है कि '' हम बोलेगा तो बोलेगा कि बोलता है। ''
मेरी समझ में नही आता है कि यदि सारी बातें इसके बिना ही हो सकती थीं तो परमपिता परमात्मा ने असीम अनुकंपा आदि करके मुँह का निर्माण क्यों किया ? मेरे सवाल के जवाब में नास्तिक प्रतिप्रश्न दाग सकते हैं कि उन्हैं '' मेड बाई परमात्मा '' की मुहर दिखाई जाए कि उसने ही औरिजनल मनुष्य और अंगों का निर्माण किया है, तब ही वे यह आरोप स्वीकारेंगे अन्यथा यह तो उस राजनीतिक षडयंत्र जैसा हुआ कि भ्रष्टाचार के सारे आरोप स्वर्गीय नेताओं पर सिद्व करके खुद बरी हो जाओ।
पर में तो सबसे भला बना रहना चाहता हूँ और मुझे जगतगति नहीं व्यापती, (सबसे भाले मूढ, जिन्हें न व्यापे जगत गति) अत: मान लेताहूँ कि जैसे समाज रूपी शरीर में मुँह में भी मुँह ऊपर है और श्रेष्ठ माना गया है।
अंग्रेजी में कहा गया है कि '' फेस इस द इंडेक्स ऑफ हर्ट '' अर्थात मुँह दिल की दुकान का साईन बोर्ड या दिलरूपी रेस्तरां का मीनू कार्ड है। मुँह की सीमा संकुचित नही है, अर्थात चाय सुड़कने, रोटियाँ निगलने, रसगुल्ले से सराबोर होने, आइसक्रीम चूसने, गालियॉ बकने, चापलूसी करने या उधार मॉगने के काम आने वाला शरीर का भाग ही मुंह नही है अपितु उपरोक्त कार्य करने वाला हिस्सा जहॉ स्थित होता है उस पूरे भाग को मुँह कहते हैं। यही कारण है कि सुबह उठते ही जिस क्षेत्रफल को सबसे पहले धोया जाता है उसे मुँह ही कहते हैं और उसमें पूरा चेहरा सम्मिलित होता है।
अगर ऐसा नहीं होता तो नई ब्याही दुल्हिन को मुँह दिखाई करने के लिए पूरा घूँघट उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ती, वह तो बिना घूँघट उठाए भी दिख जाता। कोई लड़की यदि बिना दहेज के अपनी इच्छा से अपना जीवनसाथी चुन लेती तो मॉ- बाप यह नहीं कहते कि उसने हमारे मुँह पर कालिख पोत दी है और हम मुँह दिखाने लायक ही नही रहे।
पुरानी परंपराओं में कुछ लोग प्रकृति प्रदत्त शरीर के अधूरेपन या पिता प्रदत्त जाति के कारण भी प्रात: काल में मुँह देखने लायक नहीं समझे जाते थे, भले ही उनकी बहिन- बेटियॉ लंबे समय तक दहेज तय होने पर ही विवाह करती थीं। मूलत: शदियॉ तो ऊपर आसमानों में परमपिता द्वारा तय की हुयी होती हैं। अधम पिताओं का काम तो केवल दहेज तय करना होता है, जिसके लिए लड़के का बाप पूरा मुँह फाड़कर खड़ा हो जाता है। आम तौर पर लडकियां ऐसे संभावित ससुर को घर से निकल जाने को कहना चाहती हैं पर लाज के मारे वे मुँह नहीं खोल पातीं और बात मुँह की मुँह में रह जाती है। विवाह कराने के मध्यस्थ ऐसे मौके पर या तो मुँह सिलकर बैठ जाते हैं या मुँह देखे की कहते हैं जो इस बात पर निर्भर करता है कि उनका मुँह मीठा कराने की क्षमता किसमें कितनी है। अगर मध्यस्थ कोई ब्राम्हण हुआ तो उसका मुँह मीठा कराना बहुत श्रमसाध्य होता है क्योकि वह अग्निमुख होता है जिससे मीठा करने की सारी सामग्री उसके मुखरूपी अग्निकांड में भस्म होती जाती है।
मुँह बोले भाई या बहिन के सबंध अधिक प्रगाढ़ होते हैं जैसे लक्ष्मी बाई कानपुर के नाना की मुँहबोली बहिन छबीली थीं और उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संगाम में उन्हैं सर्वाधिक मदद की थी। दोनो ने मिलकर अंग्रेजों के मुँह का स्वाद बिगाड़ दिया था। यदि सिंधिया ने साथ दिया होता तो अंग्रेजों ने उसी समय मुँह की खाई होती।
आम तौर पर बड़े आदमी किसी को ज्यादा मुँह नही लगाते पर जिन नेताओं की सार्वजनिक शत्रुता जगजाहिर होती है वे चुनाव के अवसर पर मुँह से मुँह लगा कर बातें करते हुए फोटो खिंचवाते हैं तथा आम जनता को एकता का धोखा देते हैं, भले ही उनक मुँह में राम और बगल में छुरी हो।
कुछ लोग मुँह उठाकर चलते हैं तो कुछ लोग मुँह बाकर सोते हैं। किसी के मुँह पर हवाइयॉ उड़ती हैं तो किसी के मुँह पर मक्खियॉ भिनभिनाती हैं। मुँह का रंग गोरा हो या काला पर जब अचानक ही कोई हादसा घटित हो जाता है तो मुँह पर एक रंग आता है और एक जाता है।
आम तौर पर लोग मुँह से ही बोलते है पर टेलीफोन के दूसरी ओर बात करने वाला अक्सर ही पूछता है कि कहॉ से बोल रहे हैं ? अब उत्तर देने वाले की मजबूरी होती है कि वो कहे कि मैं तो मुँह से बोल रहा हूँ और आप कहॉ से बोल रहे हैं।
मुँह खाद्य एंव पेय पदार्थो के आने जाने का मार्ग ही नही है अपितु इसके द्वारा अंग प्रत्यंग भी आते जाते रहते हैं। बचपन में दांत आते हैं और बुढापे में चले जाते हैं। कइयों की तो ऑतें भी साथ में ले जाते हैं और कहा जाता है कि 'न मुँह में दॉत न पेट में ऑत'। कभी कभी किसी का कलेजा भी मुँह को आने लगता है तथा जिनका नहीं भी आता उनके मुँह में भी मिठाइयों को देखकर पानी आ जाता है।
आम तौर पर मानव जाति में एक ही मुँह होता है पर साँपों के दो मुँहे भी होने का भ्रम प्रचलित है। ब्रम्हा विष्णु, महेश नाम के एक ही धड़ में तीन सिर लगे कलैंडर भी बाजार में मिलते हैं, चतुर्मुखी विष्णु, पंचमुखी महादेव के साथ साथ दस मुँह वाले रावण के चित्र भी प्राप्त होते हैं।
कवियों ने नायिका को चंद्रमुखी कहते कहते इस उपमा को इतना घिसा कि मुक्तिबांध को''चॉद मुँह टेढ़ा है'' कहकर उन्हें झटका देना पड़ा। किन्तु मुक्तिबोध से भी काफी पहिले बुंदेलों की एक कहावत इस एकरूपता को तोड़ रही थी। कहावत है कि '' मौं तौ थपरियन लाख दुर खौं बिरजीं ''।
(अर्थात मुंह तो चॉटों के लायक है पर नाक में पहिने जाने वाले गहने 'दुर' के लिए रूठी- मचली हुई हैं।)
कुछ मुँह तो खाद्य पदार्थो की विशोषताओं के अनुरूप ही बने होते हैं जैसे कि मसूर की दाल खाने के लिए कुछ खास तरह के मुँहों की दरकार होती है जिससे अलग होने पर मसूर की दाल की अपेक्षा रखने वाले से कहॉ जाता है कि ये मुँह और मसूर की दाल। कुछ मुँह आकार में बड़ी चीजों के लिए ही होते है ओर छोटे आइटमों से उनकी संगति नही बैठती तथा ऐसी स्थिति आने पर 'ऊँट के मुँह में जीरा' कहकर आयटम के छोटे होने के साथ साथ उन्हैं बेडोल पशु की उपाधि भी दे दी जाती है। सरकारी इंसपेक्टर, चाहै वे सेल्सटैक्स के हों या लेबर के जगह जगह मुँह मारते रहते हैं दुकानदार भी उनके मुँह का नाप अपने पास रखते हैं और उन्हैं मुँहमॉगी राशि प्रतिमाह बॉध देते हैं।
वैसे तो मैं कुछ और भी कहना चाहता था पर जानता हूँ कि आप ही अब कह देंगे कि तू छोटे मुँह बड़ी बात करता है, इसलिए चुप हूँ।
---- वीरेन्द्र जैन
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