व्यंग्य
हवा बाँधने का दौर
वीरेन्द्र जैन
तुलसी बाबा कह गये हैं कि-
क्षिति जल पावक गगन समीरा
पंचतत्व मिल बना शरीरा!
इन पंच तत्वों से ही मिल कर शरीर बनता है। इनमें से एक तत्व अथार्त पावक की बहुतायत से ये सारे तत्व विखंडित होकर अपने अपने घरों को लौट जाते हैं।
तुकांत कविता में छंद की मात्राओं के अनुसार समीर को समीरा तथा शरीर को शरीरा में बदलने की स्वतंत्रता रहती है तथा इसी स्वतंत्रता का लाभ उठाकर कवि वहाँ तक पहुँच जाता है जहाँ तक रवि भी नहीं पहुँच पाता।
जहाँ रवि नहीं पहुँच पाता, वहाँ पर समीर अर्थात हवा पहुँच जाती है। यही कारण है कि हवा का महत्व उजाले के महत्व से अधिक होता है! जो काम उजाला नहीं कर सकते वह काम हवा कर देती है। हवा जब साँस बन कर फेफड़ों में जाती है तभी जिन्दगी चलती है। यही हवा जब समाज के फेफडों में जाती है तो व्यवस्था चलती है।
हवा, करने, भरने और बाँधने के काम आती है। पहले हवा करने के लिए हाथों के पंखे हुआ करते थे, जिन्हें बीजना कहा जाता था तथा अभिजात्य वर्ग के लिए जब उनके दास यह पंखा तब तक डुलाते थे जब तक वे लोग साधारण हालात तक नहीं पहुँच जाते थे-
विजन डुलाती थीं वे विजन डुलाती हैं,
तीन बेर खाती थीं वे तीन बेर खाती हैं।
हवा करने का यही काम अब बिजली करती है, जो अगर आ जाये तो, पंखा चला कर हवा करने लगती है।
हवा, करने के साथ साथ, भरने के काम भी आती है। पहले केवल गुब्बारों में हवा भरी जाती थी फिर टायर टयूबों का जमाना आया। साइकिल से लेकर मोटर कार तक अपने अपने टयूबों में हवा भरवाकर जमीन से ऊपर उठते गये और हवा से बातें करने लगे। बूढी और लटकी खाल वालों की दाढी बनाते समय नाई कहते थे कि ''बाबा गाल में हवा भरो'' जिससे दाढी बनाने में आसानी हो। सेना और पुलिस में भर्ती के समय सीने में हवा भरवा कर सीना नापा जाता है और उम्मीद की जाती है कि सैनिक दुशमन की हवा निकाल देंगे। कहते हैं कि आपात स्थिति में अच्छों अच्छों की फॅूंक सरक जाती है, जो सामान्य स्थितियों में भरी हुयी मानी जाती है।
हवा के पाँव नहीं होते पर वह चलती है। वह दिखती नहीं है, पर महसूस होती है। कभी वह शीत लहर बन कर चलती है तो कभी लू बन कर। पर जब यह चीजों को उड़ाना शुरू कर देती है तो स्त्रीलिंग से बदल कर पुल्लिंग हो जाती है तथा तूफान कहलाती है।
करने और चलने के अलावा हवा बाँधी जाती है। भक्तिकाल से प्रारंभ हुयी यह क्रिया लोकतंत्र के विकास के साथ साथ अपने शिखर पर पहुँच गयी है। राजा महाराजा और अपने पंथ तथा पैगम्बर के पक्ष में हवा बांधने का काम कवि लोग किया करते थे। लोकतंत्र में यह जिम्मा मीडिया ने ले लिया है जिसके पास कई कवि या कविनुमा लोग पानी भरते हैं। उनका काम चुनावों की संभावनाओं को देख कर और बढ जाता है। नेता लोग मीडिया की पूछ परख बढा देते हैं क्योंकि उन्हें हवा बाँधनी होती है।
हवा बांधना एक कठिन कार्य है। हवा भरने के लिए तो एक वस्तु होती है, जिसे पम्प कहते हैं और जिसकी लोच का लाभ लेते हुए लक्ष्य की सीमाओं में हवा ठूंस ठूंस कर मुँह बन्द कर दिया जाता है, पर हवा बांधने के लिए कोई ठोस सीमा नहीं होती और इसके असंख्य मुँह होते हैं, जिन्हें बन्द कर पाना संभव ही नहीं होता। दूसरे शब्दों में कहें तो हवा बांधने के लिए सिर्फ मुँह ही होता है और उसी में हवा बाँध कर रखनी होती है। जहाँ एक ओर हवा बाँधी जा रही होती है तो दूसरी ओर हवा निकालने वाले भी सक्रिय रहते हैं, जिनका काम होता है अपनी हवा बाँधना और दूसरे की निकालना। सच तो यह है कि हवा को हवा में ही बाँधना पड़ता है।
यह कठिन काम भी किया ही जाता है। हमारे देश के योगी तो हवा में चलने की साधना करते पूरा जीवन लगा देते हैं। कठिनाइयों से घबराते नहीं। मीडिया के लोग भी यह कठिन काम करने से पीछे नहीं हटते। जनता भी उत्सुक रहती है कि जाने किसकी हवा चल रही है। वह आपस में ही पूछती रहती है। मेहमान आता है तो उसको पानी बाद में पिलाया जाता है पर यह सवाल पहले पूछा जाता है कि उधर दतिया में किसकी हवा चल रही है? उसे दतिया से कोई मतलब नहीं, पर वह हवा का रूख भांपना चाहता है ताकि भोपाल का अंदाजा लगाया जा सके और भावी सम्मान पत्र की भाषा तय कर सके। गिरधर कविराय तो कह ही गये हैं कि पतरे तरू की छाँह में मत बैठना, क्योंकि जिस दिन बयार चलेगी तब यह टूट कर तुम्हारे ही खोपड़े पर गिरेगा। इसीलिए लोग हवा जाँचते रहते हैं। इन्हीं जाँचने वाले लोगों के लिए हवा बाँधने का काम कराया जाता है ताकि ये पतरे तरूओं से भाग कर मोटे मोटे बरगदों के नीचे सुस्ताने लगें और 'चल चल रे नौजवान' का गीत सुन कर मार्च करते रहें और हवा को चलने दें।
शायर ने ठीक ही कहा है-
खुशबू को फैलने का बहुत शौक है मगर
मुमकिन नहीं हवाओं से रिशता किये बगैर
वीरेन्द्र जैन
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