शनिवार, सितंबर 19, 2009

व्यंग्य - हमारे बारे में नहीं कहा मजाकिया थरूर ने

व्यंग्य
हमारे बारे में नहीं कहा मजाकिया थरूर ने
वीरेन्द्र जैन
हम जब से स्कूल में जाने लायक हुये थे तभी से यह सुनना पड़ता रहा है कि मनुष्य एक सभ्य जानवर है। वो तो अच्छा है कि साँप के कान नहीं होते, या हो सकता है कि उसने भी मनुष्य की असभ्यताएं देख देख कर और फिर भी उसे सभ्य जानवर बतलाये जाने की बात से इतना ऊब गया हो कि उसने अपने कान ही छोड़ दिये हों- ये ले अपनी लकुटि कमरिया बहुतई नाच नचायौ।
यह उन दिनों की बात है जब बाप लोग अपने बच्चों को मास्टरों के हाथों में सोंप और अपने हाथ जोड़ कर कहते थे कि इसे आदमी बना दो, मैं आपका जिन्दगी भर अहसानमंद रहूँगा। उन दिनों मास्टरों के हाथों में चाक डस्टर नहीं अपितु छड़ी होती थी जो बिल्कुल सरकस के रिंग मास्टर की तरह हमें यह विश्वास दिलाती रहती थी कि हम अभी कौन हैं और बाप लोगों ने हमें सोंपते हुये क्यों आदमी बनाने की बात कही थी। पता नहीं वे हमें क्या समझते थे कि आदमी बनाने की हमारी शुरूआत हमें मुर्गा बनाने से होती थी। मास्टरों को अपने ज्ञान देने की क्षमता का पूरा पता होता था इसीलिए हमसे सुबह सुबह किसी ऊपर वाले से प्रार्थना करने को कहा जाता था और उससे ज्ञान मंगवाया जाता था- हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये। वो चूंकि आनंददाता था इसलिए हमारी इस गलत जगह की जा रही मांग ज्ञान देने की मांग पर आनंद लेता होगा। जैसे हम मनोरंजन वाली जगह पर राशन मांग रहे हों।
उस शिक्षा व्यवस्था से हम क्या बने इसकी जानकारी थरूर के बयान से जरूर मिलती है। हम लोग इतने जमीन से जुड़े रहे कि कभी हवाई यात्रा नहीं की पर इतना जरूर पता लग गया कि हवाईजहाजों में भी अपना सैकिंडक्लास और जनरल डिब्बा जैसा कुछ होता है जहाँ पर ब्रम्हचर्य की परीक्षा भले ही न हो पाती हो पर भारतीय रेल के आनन्द से वंचित नहीं होना पड़ता है।
दरअसल यदि पहले ही हमें हमारी ठीक सी पहचान करा दी होती तो इतना बखेड़ा खड़ा नहीं होता। बैल को भले ही हमने पिता तुल्य नहीं माना हो पर गाय हमारी माता होती है और बकौल अशोक सिंहल हरियाना के चार दलितों की हत्या की तुलना में एक गाय को मारने का सन्देह भी बड़ा अपराध है।
कभी भी किसी जानवर ने अपना नाम आदमी के नाम पर रखने की कोशिश नहीं की पर हमारे यहाँ कुल आबादी में से कम से कम बीस प्रतिशत तो अपने आप को सिंह कहते हैं और अपने नाम के साथ जोड़े रहते हैं। इतना ही नहीं उनमें से अधिकांश किसी कुर्सी की तलाश में नहीं अपितु सिंहासन की तलाश में रहते हैं।
प्रत्येक के अपने अपने आराघ्य होते हैं और वे हमारे आर्दश भी होते हैं। हम खुद तो उन जैसे नहीं बन पाते पर अपने बच्चों को उन जैसा बनने के उपदेश पिलाते रहते हैं। अब क्या किया जाये कि हमारे एक देवता का शरीर तो मनुष्य का है पर सिर हाथी का है। एक देवता का तो पूरा शरीर ही बन्दर का है। एक राजनीतिक दल ने तो अपने युवा संगठन का नाम ही उनके नाम पर रख छोड़ा है। वाराह अवतार और मत्स्य अवतार को तो छोड़ दीजिये, एक देवता ने अवतार लिया तो आधा मनुष्य और आधे सिंह का रूप धारण किया।
बफादारी में आगे रहने वालों में आदमी से भी आगे रहने वाला कोई जानवर ही हो सकता है। किसी शायर ने फर्माया भी है-
जमाने में बफा जिन्दा रहेगी
मगर कुत्तों से शर्मिन्दा रहेगी
इसलिए अपने को ज्यादा बफादार समझने के लिए अपने अपने पार्टी अध्यक्षों के आगे सभी सदस्य मनुष्य कहाँ रह पाते हैं। वे बिना कहे ही दुमदार हो जाते हैं।
मजाक न समझ पाने के कारण जो लोग थरूर के जूलॉजीकल ज्ञान से दुखी हैं उन्हें बता दूँ कि उन्होंने हम जमीन से जुड़े लोगों का कोई अपमान नहीं किया। दरअसल में वे अपने और जनता के बीच में उड़ने वालों को जब 'कैटल' समझ रहे हैं तो हमें तो वे कीड़े मकोड़े समझ रहे होंगे।
मैं तो अपने आप को चींटी समझा जाना पसंद करूंगा जिससे सूँड़ में आशियाना तलाश सकूँ। बुरा क्या मानना भाई सबके मजाक करने का सबका अपना ढंग है।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

2 टिप्‍पणियां:

  1. achcha likha hai.
    ek taraf baat baat meN is baat ki duhayi dena ki haye aadmi janvar jaisa kyoN ban raha hai dusri taraf janvar se milti-julti shakloN ya harktoN waloN ki puja karna.
    wah!

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  2. अच्छा व्यंग्य है.

    प्रमोद ताम्बट
    भोपाल
    www.vyangya.blog.co.in

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