बुधवार, सितंबर 16, 2009

व्यंग्य -क्रास वाले सिक्के से बच गया रामभरोसे


व्यंग्य
क्रासवाले सिक्के से बच गया रामभरोसे
वीरेन्द्र जैन
राम भरोसे के हाथ में मिठाई का डिब्बा देख कर मेरे चौंकने में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। जो लोग राम भरोसे को जानते हैं वे पूरे भरोसे के साथ यह भी जानते हैं कि राम भरोसे मिठाई तो दूर कभी चाय भी पिलाने के आग्रह पर चाय के दुर्गणों का पूरा पुराण बाँच सकता है और जब से चाय के माँसाहारी होने की खबरें प्रचलित हुयी थीं तब से उसे प्रचारित करने वाले भले ही उसे भूल गये हों पर राम भरोसे नहीं भूला। यह बात वह केवल तब भूल जाता है जब दूसरे उसे चाय पिला रहे हों।
'आज सूरज कहाँ से निकला है!' मैंने मुहावरेदार सवाल किया।
'पहले तो तुम अपना नीम चढा करेला अर्थात मुँह मीठा करो तब बताता हूँ कि कल में कितने बड़े हादसे से बाल बाल बच गया।
'क्यों क्या हुआ?' मेरे स्वर में मेरी जिज्ञासा चिंता का मुखौटा लगा कर बाहर आयी। साथ ही सावधानी के बतौर मैंने मिठाई का एक बड़ा सा पीस हाथ में उठा लिया ताकि बड़ी अफसोसनाक बात होने की दशा में कहीं उससे वंचित न हो जाना पड़े।
'अरे कुछ मत पूछो सब अखबार पढते रहने का दोष है। कल मैंने भाजपा के पूर्व सांसद वेदांती का बयान पढा- हाँ, हाँ वही वेदांती जिन्होंने तामिलनाडु के चुने हुये मुख्यमंत्री करूणानिधि की हत्या हेतु खुले बाजार में सुपारी का टेंडर नोटिस दिया हुआ था- कि सोनिया गाँधी ने दो रूपये के सिक्के पर क्रास का निशान छपवा दिया है जिससे पूरे देश में ईसाइयत का प्रचार हो सके। फिर मेरी पत्नी ने, जिसे मेरा अखबार पढना बिल्कुल नहीं भाता है, मेरे हाथ में सब्जी का थैला पकड़ा दिया और क्या क्या नहीं लाना है इसकी सूची सुना कर क्या क्या लाया जा सकता है उसके बारे में बताया। मैं एक परम आज्ञाकारी पति की भांति थैला लेकर बाजार में आया तो देखा कि एक आठ-दस साल का बच्चा गले में नींबू का थैला डाले दस रूपये के दस नींबू कह कर लगभग गिड़गिड़ा रहा था। मुझे उससे सहानिभूति हुयी, पर इतनी भी नहीं हुयी कि मैं मोलभाव करना भूल जाऊँ। बहरहाल मैंने सहानिभूति के तौर पर उससे ही नींबू खरीदने का दृड़ निश्चय किया और नींबू परखने के साथ साथ कहने लगा कि भाव सही बताओ। आखिरकर वह घटते घटते आठ रूपये के दस नींबू पर आ गया। वह हमारे महान देश का बालश्रमिक नहीं होता तो मैं एकाध रूपया और घटा लेता पर मुझ में भी थोड़ा सा इंसान तो बचा ही हुआ है सो मैंने छांट छांट कर बड़े बड़े दस नींबू ले लिये व दस ही लिये, और लोगों की तरह उसका गिनती ज्ञान परखने की कोशिश नहीं की। नींबू रखने के बाद मैंने पर्स निकाला व सहानिभूति से ओतप्रोत होकर उसे एक दस का करकरा नोट दिया, वैसे मेरे पर्स में दूसरे मुड़े तुड़े नोट भी थे। उसने भी मुझे एक चमचमाता सिक्का लौटा दिया और अगले ग्राहक की तलाश में बढ गया। सिक्कों को परखना जरूरी होता है क्योंकि बिना देखे एक और दो के सिक्के का फर्क पता नहीं चलता। गौर से देखा तो पाया कि सिक्का तो दो का था पर उस पर चौरस्ते की तरह कुछ बना हुआ था। थोड़ी देर पहले पढा हुआ अखबार एकदम से दिमाग में कोंध गया। अरे! यह तो वही सिक्का है जिसके बारे में विद्वान वेदांतीजी ने ज्ञान बांटा है। अब क्या होगा! मेरे पास क्रास वाला दो का सिक्का है, ये जब तक मेरे पास रहेगा मुझे ईसाई बनाने का प्रभाव डालता रहेगा। धातुएं प्रभाव डालती हैं। ऐसा नहीं होता तो लोग इतनी अंगूठियां इत्यादि क्यों पहने रहते! मुझे घबराहट होने लगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं मदर टेरेसा की तरह अनाथों बीमारों आदिवासियों को गले से लगाने लगूं और अपनी अपनी पाई-पाई लुटा दूं! कहीं अस्पताल खोल दूं, तो कहीं स्कूल खोलने लगूं। बगल में रहने वाले उस कमीने को माफ कर दूं जिसने वो सरकारी जमीन दबा ली जिसे मैं दबाने वाला था! हाय राम अब क्या होगा! सोचा फेंक ही दूं इसे। पर पैसा फेंका नहीं जाता। आखिर तो वह लक्ष्मी का रूप है भले ही उस पर मनमोहनसिंह ने सोनिया गांधी के इशारे पर क्रास बनवा दिया हो। मैंने तुरंत ही अकल से काम लिया। बगल में एक जवान सी लड़की धनिया बेच रही थी- मैंने उसका हाथ र्स्पश करने का बिना कोई प्रयास किये सिक्का उसे थमाया और दो रूपये का धनिया देने को कहा। उसने जितना भी दिया सो उतना ले लिया और ये भी नहीं कहा कि- दो रूपये का बस इत्ता!
ये मिठाई मेरे इसी बच जाने की खुशी में है।'

राम भरोसे ने अपनी कहानी खत्म की तो मैंने उससे कहा- राम भरोसे, मिठाई का एक डिब्बा ओर मंगवाओ'
'क्यों ?' उसके स्वर में आशंका की गूंज थी कि कहीं मैं उसका मजाक तो नहीं बना रहा हूँ।
मैंने कहा 'तुम सचमुच बच गये राम भरोसे, सोचो अगर तुम ईसाई हो गये होते तो बहुत सम्भव है कि फादर स्टेंस और उसके दोनों मासूम बच्चों की तरह तुम्हें भी जिंदा जला दिया जाता और तुम्हारे हत्यारे को बचाने वाले को राज्यसभा का सांसद बना दिया जाता तो ? क्योंकि ऐसा व्यक्ति पैसे को खुदा तो मानता है पर उस पैसे पर ईसाइयों के खुदा को खुदा नहीं देखना चाहता।'

राम भरोसे बोला- कल मैं मिठाई का एक डिब्बा और ले आऊंगा पर भगवान के लिए मुझे जिंदा मत जलवाओ! चलता हँ। जयश्री राम।'
मिठाई के डिब्बे की उम्मीद से भरे हुये मैंने भी कहा- जय श्री रामसेतु


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

4 टिप्‍पणियां:

  1. विरेन्द्र जी
    सादर वन्दे!
    आपने अच्छा व्यंग किया, लेकिन सोच में कुछ समग्रता की कमी लगी,
    एक उदाहरण के लिए मै ये कह सकता हूँ की जब कभी इस देश का इतिहास पुनः लिखा जायेगा तो ये सिक्के एक प्रमाण बनेगें की चूँकि इसपर क्राश बना है अतः उस समय यहाँ अंग्रेजों का शासन रहा होगा यानि फिर वही इतिहास. क्या आप इस गरीबों को गले लगाने के ढोंग मात्र से अपने भविष्य को गुलामी का इतिहास ही पढाना चाहते हैं,
    क्षमा करे मन में बात आई तो लिखा, अन्यथा न लेवें.
    रत्नेश त्रिपाठी

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  2. प्रिय आर्यजी
    प्रशंसा के लिए शुक्रिया किन्तु मुझे आप कुछ संघियों के दुष्प्रभाव से ग्रस्त लगते हो अगर दुनिया इतनी नष्ट हो जायेगी की कभी अर्थात लाखों साल बाद इतिहास का ज्ञान करने के लिए कुछ नहीं मिलेगा केवल एक वही सिक्का मिलेगा जिसमें कुछ लाइनें क्रॉस जैसी हैं तब भी क्या इतिहासकार इस निर्णय पर पहुँच सकेंगे की हिन्दुस्तान में ईसाइयों का शासन था और मान लो की ऎसी मूर्खतापूर्ण परिकल्पना सच हो भी गयी और ऐसा भी हुआ तो उसके चक्कर में हम अपना वर्तमान मोदियों के हित में क्यों बरबाद कर दें . मेरे दोस्त ये संघी बेबकूफ नहीं होते हैं केवल भोले भाले लोगों को बेबकूफ बनाते हैं मेरी प्रार्थना है की आप विवेक से काम लें

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